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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार [४७३ में जो परिचित परिग्रह है उससे भी अत्यन्त विरक्त रहता है; वह परिग्रहत्यागी श्रावक नवमें पदवाला होता है। भावार्थ :- नवमें पदवाले श्रावक के रुपया, मोहर, स्वर्ण, चाँदी, गहना आभरण आदि सकल परिग्रह का त्याग है। जिसके पास शीत-उष्णता की वेदना दूर करने मात्र के लिये कोई अल्पमोल का आवश्यक प्रामाणिक वस्त्र होता है; तथा हाथ-पैर धोने के लिये, पानी पीने के पात्र मात्र परिग्रह होता है, वह नवमें परिग्रहत्याग पद वाला है। जो गृह में या अन्य एकान्त स्थान में शयन-आसन आदि करता है; भोजन-वस्त्रादि जो घर के लोग दे देते हैं सो वह ले लेता है; औषधि-आहार-पान-वस्त्रादि की, तथा शरीर की टहल कराने की इच्छा हो तो स्त्री-पुत्रादि को कहता है; घर के स्त्री-पुत्रादि करा दें तो करा ले; नहीं करें तो उनसे कुछ उजर नहीं करता कि हमारा मकान है, धन है, आजीविका है, हमारा कहना क्यों नहीं करते हो ? ऐसी उजर ( शिकायत) या परिणाम में संक्लेशादि विचार नहीं करता है, वह परिग्रहत्याग नाम का नवमाँ पद है।९। अब दश अनुमतित्याग नामक पद का लक्षण कहते हैं अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे ऐहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरत: स मन्तव्य :।।१४६।। अर्थ :- जो आरंभ में, परिग्रह में, इसलोक संबंधी कार्य जो विवाह आदि, गृह बनवाना, वणिज, सेवा इत्यादि क्रिया में, कुटुम्ब के लोग पूछे तो भी अनुमति नहीं देता है; तुमने अच्छा किया-ऐसा मन-वचन-काय से नहीं प्रकट करता; रागादि रहित समबुद्धि वाला है, वह श्रावक अनुमतिविरत है। भावार्थ :- जो खारे, कडुवे , मीठे, स्वादिष्ट, वेस्वाद भोजन में राग-द्वेष रहित होकर सुन्दर-अंसुदर नहीं कहता; तथा बेटा-बेटी के, लाभ-अलाभ के, हानि-वृद्धि के, दुःख-सुख के सभी कार्यों में हर्ष-विषाद रहित होकर अनुमोदना नहीं करता है; उसके अनुमतिविरत नाम का दशवाँ पद होता है।१०। अब ग्यारहवें उद्दिष्ट त्याग पद का लक्षण कहते है: गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कष्टश्चेलखण्डधरः ॥१४७।। अर्थ :- जो समस्त परिग्रह का त्याग करके, अपने घर से मुनियों के रहने के वन मे जाकर, गुरुओं के समीप व्रतों का ग्रहण करके , खण्ड-वस्त्र धारण करके भिक्षा द्वारा भोजन करता हुआ तपश्चरण करता है, वह उत्कृष्ट श्रावक है। भावार्थ :- जो समस्त गृह, कुटुम्ब से विरक्त होकर, वन में जाकर, मुनियों के निकट दीक्षा लेकर, एक कोपीन (लंगोटी) मात्र या कोपीन तथा खण्ड वस्त्र जिससे पूरा शरीर नहीं ढकता-सिर Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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