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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४७२] यह ब्रह्मचारी अपनी विवाहित स्त्री के साथ, निकट एक स्थान में शयन नहीं करता है; पूर्व में भोगे हुए भोगों की कथा-वार्तालाप-विचार नहीं करता है; कामोद्दीपन करने वाले पुष्ट आहार का त्याग करता है; राग उत्पन्न करनेवाले वस्त्र-आभरण नहीं पहिनता है; गीत. वादित्र, नृत्य आदि का सुनना-देखना त्याग देता है; फूलों की माला, सुगन्ध, विलेपन, इत्र, फुलेल आदि त्याग देता है; शृंगार कथा, हास्य कथारुप काव्य, नाटक आदि का पढ़नासुनना त्याग देता है; तांबूल आदि राग बढ़ानेवाली वस्तुओं का दूर से ही त्याग करता है; उसके ही ब्रह्मचर्य नाम का सातवाँ श्रावक का पद होता है।७।। अब परिणाम बढ़ने पर आठवें आरंभ त्याग पद का लक्षण कहते हैं: सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्तः ॥१४४।। अर्थ :- जो जीव हिंसा के कारण हैं ऐसे नौकरी (सेवा), कृषि, व्यापार आदि से मुख्यता से, तथा असिकर्म , लेखनकर्म, शिल्पकर्म से भी जिनमें हिंसा होती है, ऐसे आरंभों से विरक्त होता है, वह आरंभनिवृत नामक आठवें पद का धारी श्रावक है। भावार्थ :- वह धन उत्पन्न करने के कारण समस्त व्यापारादि पाप के आरंभ त्याग देता है। स्त्री-पुत्रादि को समस्त परिग्रह का बंटवारा करके थोड़ा-सा धन अपने पास रख लेता है, नया धन नहीं कमाता है। अपने पास जो थोड़ा धन रख लिया था उसमें से दुःखी-भूखों का उपकार करना , अपने शरीर के साधन औषधि-भोजन-वस्त्रादि में लगाना, तथा अपना हित चाहनेवालों, अपने से ममत्व रखनेवालों के साधर्मियों के दुःख निवारण के लिये देता है, अन्य पाप के आरंभ में नहीं लगता है। जो मर्यादारुप थोड़ा धन अपने पास रख लिया था, उसे कोई चोर, हिस्सेदार, दुष्ट, राजादि छीन ले तो क्लेश नहीं करता है; पुनः कमाने का यत्न नहीं करता है; त्याग करके ऊपर ही चढ़ता है। वहाँ विचारता है-अहो ! मैंने रागी-मोही होकर इतना परिग्रह रख लिया था जो चला गया, कर्मोदय ने मेरा बड़ा उपकार किया। ममता, आरंभ , रक्षा, भयादि समस्त क्लेश से छूट गया, इसका बड़ा दुर्ध्यान था, वह सहज ही छूट गया; ऐसा भाव जिसके होता है, उसके आरंभनिवृत नाम का आठवा पद है।८। अब नवमें परिग्रहत्याग नामक पद का लक्षण कहते है: बाह्येषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थ: संतोषपर: परिचितपरिग्रहाद्विरतः ।।१४५।। अर्थ :- दश प्रकार के बाह्य परिग्रह में ममत्व छोड़कर के, हमारा किंचित् भी कुछ भी नहीं है ऐसा निर्ममत्वपनें में लीन रहना है; देहादि, रागादि, समस्त परद्रव्य–पर पर्यायो में आत्मबुद्धि रहित होकर, अपने अविनाशी ज्ञायक भाव में स्थिर रहता है; जो भोजन,स्थान, वस्त्रादि कर्मोदय से मिला है उससे अधिक नहीं चाहता हुआ, संतोषरुप होकर, समस्त वांछा-दीनता रहित हो जाता है; साथ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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