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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४७१ बार वन्दना सहित सामायिक करनेवाले को सामायिक नाम के तीसरे पद में जानना। इसकी विशेष विधि बहुज्ञानी गुरुओं की परिपाटी से कहे अनुसार प्रमाण है।३। अब चोथे प्रोषध पद का लक्षण कहते हैं: पर्वदिनेषु चतुर्खपि मासे-मासे स्वशक्तिमनिगुह्य। - प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपर: प्रोषधानशनः।।१४०।। अर्थ :- एक-एक माह में दो अष्टमी, दो चतुर्दशी इस प्रकार चार पर्व के दिनों में अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर, आहार-पानी आदि का त्यागकर या नीरस आहार या अल्प आहार या छाछ आदि मात्र ही लेकर, शुभ ध्यान में लीन होकर प्रोषध पूर्वक नियम से उपवास करनेवाले को, जो चारों पर्यों में इसी प्रकार रहता है, उस प्रोषध नाम के चौथे पद में जानना।।। अब सचित्त त्याग नामक पंचमपद का लक्षण कहते हैं: मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनबीजानि । ___ नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ।।१४१।। अर्थ :- जो श्रावक मूल, फल, पत्र, डाली, करीर ( कोंपल, वंशकिरण), कंद, फल और बीज बिना अग्नि से पकाये, कच्चे हो; उन्हें निरर्गल होकर भक्षण नहीं करता है, वह दया की मूर्ति ही सचित्तविरत नाम के पांचवें पद में स्थित जानना।५। अब रात्रिभुक्ति विरत नामक छठे पद का लक्षण कहते हैं: अन्नं पानं खाद्यं लेां नाश्नाति यो विभावर्याम् । स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः ।।१४२।। अर्थ :- जो प्राणियों पर अनुकम्पा (दया) रुप परिणामों को मन में धारण करनेवाला पुरुष रात्रि में अन्न से बना हुआ भोजन; पान अर्थात् जल, दूध, शरबत इत्यादि पीने योग्य; खाद्य अर्थात् पेड़ा, लड्डू, पाक आदि; लेह्य अर्थात् स्वाद लेने योग्य मात्र इलायची, सुपारी, लौग, औषधि आदि-इस प्रकार चार तरह से कहने से समस्त खाने योग्य-पीने योग्य सामग्री को रात्रि में नहीं खाता है, वह रात्रि भुक्तिविरत नामक छठे पद का धारी श्रावक है।६। अब बह्मचर्य नामक सप्तम पद का लक्षण कहते हैं: मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतगन्धि बीभत्सं । पश्यन्नङ्गमनङ्गाद् विरमति यो ब्रह्मचारी सः ।।१४३।। अर्थ :- यह शरीर माता के रुधिर व पिता के वीर्यरुप मल से उत्पन्न हुआ है, इसलिये इसका बीज मल ही है। यह शरीर मल को ही उत्पन्न करता है, अत: यह मल की योनि है। यह सदा ही नव द्वारों से मल को ही बहाता रहता है, अत: गलन्मल है। महादुर्गन्धयुक्त तथा घृणा का स्थान है। ऐसे शरीर को देखते हुए जो कामभाव से विरक्त हो जाता है, वह ब्रह्मचारी सप्तम पद वाला है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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