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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार आहार, उसके बिना केवली के देह की स्थिति नहीं रहेगी, जैसे अपनी देह कवलाहार बिना नहीं रहती ? उन्हें उत्तर देते हैं - देवों का शरीर कवलाहार बिना सागरों पर्यन्त कैसे बना रहता है ? समस्त देवों के कवलाहार कभी नहीं होता है और देह की स्थिति रहना ही है, इसलिए तुम्हारा तर्क व्यभिचारी हुआ। यदि तुम यह कहोगे (३) – देवों के देह की स्थिति तो मानसिक आहार से रहती है। मन में आहार की इच्छा उत्पन्न होते ही कण्ठ में से अमृत झर जाता है, उससे तृप्ति हो जाती है, वह मानसिक आहार है। जिस प्रकार भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पवासीचतुर्निकाय के देवों के कवलाहार बिना मानसिक आहार से ही देह की स्थिति रहती है; उसी प्रकार केवली भगवान के भी कर्म-नोकर्म वर्गणा के आहार से ही देह की स्थिति रहती है। ___ यदि तुम यह कहोगे (४) – केवली की तो मनुष्यगति के शरीर में स्थिति है इसलिये अपनी देह के समान कवलाहार से ही उनकी देह की स्थिति मानते हैं ? उससे कहते हैं - तो अपने शरीर के समान पसेव, खेद, उपसर्ग, परिषह आदि भी केवली के मानना होंगे। यदि तुम यह कहोगे (५) – केवली के अतिशय के प्रभाव से पसेव, खेद, उपसर्ग, परिषह आदि नहीं होते हैं ? उससे कहते हैं - तो भोजन का अभावरूप अतिशय भी केवली के क्यों नहीं मानते हो? यदि तुम यह कहोगे (६) - जैसे अपने शरीर में पसेव आदि होते दिखाई देते हैं उसी प्रकार केवली के भी मानो ? उससे कहते हैं - तो जैसे अपने को इन्द्रियजनित ज्ञान है वैसे की केवली के भी इंद्रियजनित ज्ञान मानो। देखना, सुनना, स्वाद लेना, चिन्तवन करना केवली के इन्द्रियों ना ही ठहरा. तब केवलज्ञानरूप अतीन्द्रिय ज्ञान को जलांजलि दे दी. सर्वज्ञपना का अभाव का प्रसंग आयेगा ? ___यदि तुम यह कहोगे (७) - ज्ञान की अपेक्षा सभी मनुष्य और केवली समान होने पर भी केवली के अतींद्रिय ज्ञान ही है ? उससे कहते हैं - तो देह में स्थिति समान होने पर भी कवलाहार का अभाव क्यों नहीं मानते हो? यदि तुम यह कहोगे (८) - केवली के वेदनीयकर्म का सद्भाव है इसलिये भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है, अतएव कवलाहार में प्रवृति होती है। उससे कहते हैं - सो इस प्रकार कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि मोहनीय कर्म की सहायता सहित ही वेदनीय कर्म भोजन करने की इच्छा उत्पन्न कराने में समर्थ है। भोजन की इच्छा वह Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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