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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार ] आप्तपना का प्रसंग आ जाता। आप्त निर्दोष तो होता ही है, सर्वज्ञ भी होता है। यदि निर्दोष और सर्वज्ञ–ये दो ही आप्त के गुण कहें तो भगवान सिद्धों के भी आप्तपना का प्रसंग आ जाता, तब सच्चे उपदेश का अभाव आ जाता। इसलिये निर्दोष, सर्वज्ञ और परम हितोपदेशकता इन तीन गुणों सहित देवाधिदेव परम औदारिक शरीर में स्थित भगवान सर्वज्ञ वीतराग अरहन्त को ही आप्तपना है, ऐसा निश्चय करना योग्य है। अब अरहन्तदेव जिन अठारह दोषों को नष्ट करके आप्त हुए उन दोषों के नाम कहने के लिए श्लोक कहते हैं : क्षुत्पिपासाजरातंक जन्मान्तकभयस्मयाः । न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ।।६।। [५ अर्थ :- क्षुत् अर्थात् क्षुधा १, पिपासा अर्थात् तृषा २, जरा अर्थात् वृद्धपना ३, आतंक अर्थात् शरीर संबधी व्याधि ४, जन्म अर्थात् कर्म के वश से चतुर्गति में उत्पत्ति ५, अन्तक अर्थात् मृत्यु ६, भय अर्थात् इसलोक का भय, परलोक का भय, मरणभय, वेदनाभय, अनरक्षा भय, अगुप्ति भय, अकस्मात् भय ऐसे सात प्रकार के भय ७, स्मय अर्थात् गर्व (मद ) ८, राग ९, द्वेष १०, मोह ११, और च शब्द से चिन्ता १२, रति १३, निद्रा १४, विस्मय अर्थात् आश्चर्य १५, विषाद अर्थात् शोक १६, स्वेद अर्थात् पसीना १७, १८ जानना। ये १८ दोष जिसके नहीं होते हैं उसे आप्त कहते हैं । खेद अर्थात् व्याकुलता श्वेताम्बरमत समालोचना अब यहां कोई श्वेताम्बरमतवाला प्रश्न करता है ( १ ) - हे ! दिगम्बर धर्मधारक! यदि केवली भगवान के क्षुधा - तृषा का अभाव है तो आहारादि में प्रवृत्ति का अभाव होने से केवली के देह की स्थिति नहीं रहना चाहिए, और केवली के देह की स्थिति तुम्हारे लिए स्वीकार ही हैं; इसलिए केवली के आहार करने की सिद्धि हुई ! जिस प्रकार आहार किये बिना अपने देह की स्थिति नहीं रहती, उसी प्रकार केवली के भी आहार किये बिना देह की स्थिति नहीं रहती और केवली के देह की स्थिति है, तो अवश्य आहार करते ही होंगे ? - 1 उन्हें उत्तर देते हैं - केवली के मात्र आहार की सिद्धि करना है या कवलाहार की सिद्धि करना है ? यदि मात्र आहार की सिद्धि करने का अभिप्राय है तब तो सयोग केवली (१३ वें गुण स्थान) पर्यंत समस्त जीव आहारक ही हैं, ऐसा परमागम का वचन है । एक इन्द्रिय से लगाकर सयोगी पर्यंत समस्त ही जीव समय-समय में सिद्ध राशि के अनन्तवें भाग और अभव्यराशि से अनंतगुणे कर्म परमाणु और नोकर्म परमाणुओं को निरंतर ग्रहण करते रहते हैं। यदि तुम यह कहोगे (२) हम तो केवली के कवलाहार अर्थात् ग्रास-ग्रास-अन्न जलादि अपने समान भोजन करने की तरह मुख में लेकर आहार करना कहते हैं। कवलाहार अर्थात् ग्रासरूप Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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