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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार उसके ईश्वरपना कैसे होगा? जो निरन्तर भयवान होकर शस्त्र आदि ग्रहण किये रहे उसके शत्रु विद्यमान हैं, वह निराकुल कैसे होगा ? जिसके द्वेष, चिन्ता, खेदादि निरंतर रहें वह सुखी नहीं होता। जो कामी,रागी हो वह तो निरंतर अन्य के वश रहता है; उसे स्वाधीनता नहीं है; पराधीनता से सच्चा वक्तापना बनता नहीं है। जो मद के वशीभूत हो, निन्दा के वशीभूत हो उसके सच्चा ज्ञातापना नहीं हो सकता है। जो जन्म-मरण सहित है उसके संसार परिभ्रमण का अभाव नहीं हुआ, संसारी ही है; उसके भी सच्चा आप्तपना नहीं बनता। इसलिये जो निर्दोष हो उसी को सत्यार्थपने द्वारा आप्तपना बनता है। रागी-द्वेषी तो अपना और पर का राग-द्वेष पृष्ट करनेरूप वचन ही कहता है। यथार्थ वक्तापना तो वीतरागी को ही सम्भव है। यदि सर्वज्ञ नहीं होते तो इंद्रियों के आधीन ज्ञानवाला पहले हो गये जो राम, रावण आदि उन्हें कैसे जानेगा ? दूरवर्ती जो मेरु पर्वत, स्वर्ग, नरक परलोकादि को कैसे जानेगा ? और सूक्ष्म परमाणु इत्यादि को कैसे जानेगा ? इन्द्रियजनित ज्ञान तो स्थूल, विद्यमान, अपने सन्मुख पदार्थो ही को स्पष्ट नहीं जानता है। इस संसार में पदार्थ तो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदि अनन्त हैं और एक ही समय में सभी अपनी भिन्न-भिन्न परिणतिरूप परिणमते हैं। इसलिये एक समयवर्ती अनन्त पदार्थो की भिन्न-भिन्न अनंत ही पर्यायें होती हैं। इंद्रियजनित ज्ञान तो क्रमवर्ती स्थूल पुद्गल की अनेक समयों में हुई जो एक स्थूल पर्याय है उसे जाननेवाला है। अनेक पदार्थो की अनेक पर्याये प्रति समय हो रही हैं। जो एक समयवर्ती सभी पर्यायों को ही जानने में समर्थ नहीं है तो जो अनंतकाल बीत गया और अनंतकाल आयेगा, उसकी अनंतानंत पर्यायों को वह इंद्रियजनित ज्ञान कैसे जान सकेगा? इसलिये सर्व त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों को युगपत् ( एक साथ) जानने में समर्थ ऐसे सर्वज्ञ ही के आप्तपना संभव है; और जो परम हितोपदेशक हो वही आप्त है। ये तीन गुण जिसमें हों वही देव है। यद्यपि अर्हन्तदेव मनुष्य पर्याय को धारण किये मनुष्य हैं तो भी ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों के नाश से प्रगट हुआ जो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, अनंतसुखरूप निज स्वभाव उसमें रमण करने से, कर्मों को जीतने से, अप्रमाण (अतुल) शरीर की कांति प्रगट होने से. अनंत आनंद और सख में मग्न होने से तथा इंद्रादि समस्त देवों द्वारा स्तति योग्य होने से, अनंत ज्ञानदर्शन स्वभाव द्वारा समस्त लोकालोक में व्याप्त होने से, अनंत शक्ति प्रगट होने से अन्य देवों और मनुष्यों से भिन्न असाधारण आत्मा के रूप द्वारा शोभायमान हैं। इसलिये मनुष्य पर्याय में ही अपने अनंतज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख आदि गुणों के प्रगट होने के कारण इन्हें देवाधिदेव कहते हैं। यहाँ कोई प्रश्न करता है - आप्त के तीन लक्षण (गुण) क्यों कहे ? एक निर्दोष कहने से ही उसमें समस्त गुण ( लक्षण) आ जाते ? उससे कहते हैं - निर्दोषपना तो पुद्गल ( परमाणु), धर्म, अधर्म, आकाश और कालादि में भी है। इनके अचेतनपना होने से क्षुधा, तृषा, राग-द्वेषादि भी नहीं हैं। अतः निर्दोषपना कहने से इनके Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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