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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार] [३ ज्ञान, आचरण हैं वे संसार के घोर अनंतदुखों में डुबोनेवाले हैं - ऐसा वीतराग भगवान कहते हैं; हम अपनी रूचि से कल्पित नहीं कह रहे हैं। अब प्रथम ही सम्यग्दर्शन का लक्षण कहने के लिए श्लोक कहते हैं : श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्। त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।।४।। अर्थ :- जो सत्यार्थ आप्त , आगम और तपोभृत् हैं उनके श्रद्धान से सम्यग्दर्शन होता है। आप्त तो समस्त पदार्थों को जानकर उनका सत्यार्थ स्वरूप प्रगट करनेवाले हैं; आगम-आप्त के द्वारा रचित रचनारूप शास्त्र हैं; आप्त द्वारा प्ररूपित शास्त्र के अनुसार आचरण को आचरने वाले तपोधन अर्थात् गुरु हैं। यहां सच्चे आप्त, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान वह सम्यग्दर्शन कहा है; किन्तु असत्य आप्त, आगम और गुरु का श्रद्धान वह सम्यग्दर्शन नहीं है। वह सम्यग्दर्शन तीन मूढ़ताओं से रहित, अपने अष्ट अंगों सहित और अष्टमद रहित होता है। भावार्थ :- सत्यार्थ आप्त, आगम व गुरु का तीन मूढ़ता रहित, निःशंकित आदि अष्ट अंग सहित और अष्टमद रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यहां कोई प्रश्न करता हैं :- आगम में तो सप्त तत्व-नव पदार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है, यहां पर वह क्यों नहीं कहा? उसका समाधान - निर्दोष बाधा रहित आगम के उपदेश बिना सप्त तत्त्वों का श्रद्धान कैसे होगा ? निर्दोष आप्त के बिना सत्यार्थ आगम कैसे प्रगट होगा? इसलिए तत्त्वों के भी श्रद्धान का मूलकारण सत्यार्थ आप्त ही हैं। अब सत्यार्थ आप्त का लक्षण प्रकट करनेवाला श्लोक कहते हैं : आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।५।। अर्थ :- धर्म का मूल भगवान आप्त हैं, उनके तीन गुण हैं – निर्दोषपना, सर्वज्ञपना, परम हितोपदेशकपना। जिसके क्षुधा, तृषादिक दोष नष्ट हो गये इसलिए निर्दोष; त्रिकालवर्ती समस्त गुण–पर्यायों सहित समस्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल की अनन्त पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जानते हैं इसलिए सर्वज्ञ; और परम हितोपदेशकपने द्वारा द्वादशांगरूप जो आगम उसके मूलकर्ता इसलिये आगम के हितोपदेशक स्वामी। इस प्रकार ये तीन गुण कहे हैं, उन सहित जो होता है वह निश्चय से आप्त ही होता है, उसी को देव कहते हैं। इन तीन गुणों के बिना अन्य प्रकार से आप्तपना नहीं होता है। भावार्थ :- जो स्वयं ही दोषों सहित हो वह अन्य जीवों को निराकुल, सुखी, निर्दोष कैसे करेगा ? जो क्षुधा की बाधा, तृषा की बाधा, काम, क्रोधादिक दोषों सहित हो वह तो महादुःखी है, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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