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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार सुखों को प्राप्त करा देता हैं; और कैसे धर्म को कहूँगा ? जो समीचीन अर्थात् जिसमें वादीप्रतिवादी द्वारा व प्रत्यक्ष-अनुमानादि द्वारा बाधा नहीं आती है तथा जो कर्म बंधन को नष्ट करने वाला है, ऐसे धर्म को कहूँगा।
__ भावार्थ - संसार में 'धर्म' ऐसा नाम तो समस्त लोक कहता है, परन्तु 'धर्म' शब्द का अर्थ तो इस प्रकार है - जो नरक-तिर्यंचादि गतियों में परिभ्रमणरूप दुःखों से आत्मा को छुड़ाकर उत्तम , आत्मीक, अविनाशी, अतीन्द्रिय, मोक्ष सुख में धर दे, वह धर्म है। ऐसा धर्म मोल (पैसा के बदले में) नहीं आता है, जो धन खर्च करके दान-सन्मानादि द्वारा ग्रहण कर लें; किसी का दिया नहीं मिलता है, जो सेवा-उपासना द्वारा प्रसन्न करके ले लिया जाय; मंदिर, पर्वत, जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थक्षेत्रादि में नहीं रखा है, जो वहाँ जाकर ले आयें; उपवास, व्रत, कायक्लेशादि तप से भी नहीं मिलता तथा शरीरादि कृश करने से भी नहीं मिलता है। देवाधिदेव के मंदिर में उपकरणदान, मण्डल पूजन आदि करके; घर छोड़कर वन-श्मशान आदि में निवास करने से तथा परमेश्वर के नाम-जाप आदि करके भी धर्म नहीं मिलता है। ____ 'धर्म' तो आत्मा का स्वभाव है। पर-द्रव्यों में आत्मबुद्धि छोड़कर अपने ज्ञाता दृष्टारूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तनरूप जो आचरण है, वह धर्म हैं। जब उत्तमक्षमादि दशलक्षणरूप अपने आत्मा का परिणमन तथा रत्नत्रयरूप और जीवों की दयारूप अपने आत्मा की परिणति होगी, तब अपना आत्मा आप ही धर्मरूप हो जायगा। परद्रव्य, क्षेत्र, कालादिक तो निमित्तमात्र हैं। जिस समय यह आत्मा रागादिरूप परिणति छोड़कर वीतरागरूप हुआ दिखाई देता है तभी मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान, तप, जप समस्त ही धर्मरूप हैं; और यदि अपना आत्मा उत्तम क्षमादिरूप, वीतरागतारूप, सम्यग्ज्ञानरूप नहीं होता है; तो बाहर कहीं भी धर्म नहीं होगा। यदि शुभराग होगा तो पुण्यबंध होगा; और यदि अशुभ राग द्वेष, मोह होगा तो पापबन्ध होगा। जहाँ शुद्ध श्रद्धान-ज्ञान-आचरण स्वरूप धर्म है वहाँ बंध का अभाव है। बंध का अभाव होने पर ही उत्तम सुख होता है। ___अब ऐसे उत्तम सुख का कारण जो आत्मा का स्वभावरूप धर्म है उसे प्रगट करने के लिए श्लोक कहते हैं :
सदृष्टिज्ञानवृतानि धर्मं धर्मेश्वराः विदुः ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।।३।। अर्थ :- धर्म के ईश्वर भगवान तीर्थंकर परमदेव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र इन तीनों को धर्म कहते हैं; और इन तीनों से प्रतिकूल जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं वे संसार परिभ्रमण की परिपाटी होते हैं।
भावार्थ :- जो अपना और अन्य द्रव्यों का सत्यार्थ श्रद्धान, ज्ञान, आचरण है वह संसार परिभ्रमण से छुड़ाकर उत्तमसुख में धरनेवाला धर्म है; और अपना व अन्य द्रव्यों का असत्यार्थ श्रद्धान,
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