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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार 5 ॐ नमः सिद्धेभ्यः । रत्नकरण्ड श्रावकाचार प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार यहाँ इस ग्रन्थ के प्रारंभ में स्याद्वादविद्या के परमेश्वर परम निर्ग्रन्थ वीतरागी श्री समन्तभद्र स्वामी जगत के भव्यों के परम उपकार के लिये रत्नत्रय की रक्षा के उपायरूप श्री रत्नकरण्ड नाम के श्रावकाचार को कहने की इच्छा से तथा विघ्नरहित शास्त्र की समाप्तिरूप फल की इच्छा से विशिष्ट इष्टदेव को नमस्कार करते हुए श्लोक कहते हैं : मंगलाचरण नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ।।१।। अर्थ :- श्री वर्द्धमान तीर्थंकर के लिये हमारा नमस्कार हो। श्री अर्थात् अंतरंग स्वाधीन जो अनंतज्ञान, अनंतदर्शन , अनंतवीर्य व अनंतसुख स्वरूप अविनाशी लक्ष्मी और बहिरंग इन्द्रादिक देवों द्वारा वंदनीय जो समोशरणादिक लक्ष्मी सहित वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं, वे श्री वर्द्धमान हैं। अथवा अव समंतात् अर्थात् समस्त प्रकार से, ऋद्ध अर्थात् परम अतिशय को प्राप्त हुआ है केवलज्ञानादि मान अर्थात् प्रमाण जिनका वे श्रीवर्धमान हैं। यहाँ “ अवाप्योरल्लोपः” इस व्याकरण शास्त्र के सूत्र द्वारा अकार (अ) का लोप (अभाव) हो गया है। कैसे हैं श्री वर्द्धमान ? निर्धूत कलिल है आत्मा जिनका। निर्धूत अर्थात् नष्ट किया है आत्मा का, कलिल अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मरूप पापमल जिसने, ऐसे हैं; और जिनका केवलज्ञान अलोकाकाश सहित सम्पूर्ण तीनों लोकों को दर्पण के समान आचरण ( प्रकाशित) कर रहा है। भावार्थ - जिनके केवलज्ञानरूप दर्पण में अलोकाकाश सहित षद्रव्यों के समूहरूप सम्पूर्ण लोक अपनी भूत, भविष्यत्, वर्तमान की समस्त अनंतानंत पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित हो रहा है; और जिनका आत्मा समस्त कर्ममल रहित हो गया है, ऐसे श्री वर्द्धमान देवाधिदेव अंतिम तीर्थंकर को मैं अपने आवरण, कषायादि मल रहित सम्यग्ज्ञान प्रकाश के प्रगट होने के लिये नमस्कार करता हूँ। अब आगे धर्म का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञारूप श्लोक कहते हैं : देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।।२।। अर्थ :- मैं ग्रन्थकर्ता (आचार्य समन्तभद्र) इस ग्रन्थ में उस धर्म का उपदेश देने जा रहा हूँ-जो प्राणियों को पंचपरिवर्तनरूप संसार के दुखों से निकालकर स्वर्ग के और मोक्ष के बाधारहित उत्तम Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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