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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
भावार्थ :- अज्ञानी बहिरात्मा है इसलिये वह देह में रहता हुआ भी मैं सुखी, मैं दुःखी, मैं मरता हूँ, मैं भूखा मैं प्यासा, मेरा नाश हुआ - ऐसा मानता है । अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि ऐसा मानता है- जो उत्पन्न हुआ है वह मरेगा। पृथ्वी, जल, अग्नि, पवनमय, परमाणुओं के पिण्डरुप यह देह उत्पन्न हुई है वह विनशेगी । मैं ज्ञानमय अमूर्तिक आत्मा, मेरा नाश कभी नहीं होता है । ये भूख प्यास, वात, पित्त, कफ, रोग, भय, वेदना पुद्गल के हैं, मैं इनका ज्ञाता हूँ। मैं व्यर्थ ही इनमें अहंकार करता हूँ ।
इस शरीर का और मेरा एक क्षेत्र में रहने रुप अवगाह ( संबंध ) है तथापि मेरा रुप ज्ञाता है, शरीर जड़ है: मैं अमूर्तिक हूँ देह मूर्तिक है; मैं अखण्ड एक हूँ, शरीर अनेक परमाणुओं का पिण्ड हैं, मैं अविनाशी हूँ, देह विनाशीक है । अब इस देह में जो रोग, क्षुधा, तृषादि उत्पन्न होंगे मैं उनका ज्ञाता ही रहूँगा, क्योंकि मेरा तो ज्ञायक स्वभाव है।
पर में ममत्व करना वही अज्ञान है वही मिथ्यात्व है । जैसे एक मकान को छोड़कर दूसरे मकान में रहने लगते हैं, उसी प्रकार मेरे शुभ-अशुभ भावों से बांधे कर्मों से बने दूसरे शरीर में मुझे जाना है । इसमें मेरे स्वरुप का नाश नहीं होता है । अब निश्चय से विचार करने पर मरण का भय किसको होगा ?
समाधिमरण आनन्द देने वाला है :
संसारासक्तचित्तानां मृत्युर्भीत्यैः भवेन्नृणाम् ।
मोदायते पुनः सोऽपि ज्ञानवैराग्यवासिनाम् ।।१०।।
अर्थ :- संसार में जिनका चित्त आसक्त है, अपने स्वरुप को जो नहीं जानते हैं, मृत्यु उनके लिये भय करनेवाली है; किन्तु जो निज स्वरुप के ज्ञाता हैं, संसार से वैरागी हैं उनके
लिये तो मृत्यु आनन्द ही देने वाली है ।
भावार्थ :- मिथ्यादर्शन के उदय से जो आत्मज्ञान रहित हैं, देह ही को आत्मा मानते हैं, खाना-पीना काम - भोग आदि इंन्द्रियों के विषयों को ही सुख मानते हैं ऐसे बहिरात्माओं को तो उनका मरण बड़ा भय उत्पन्न करने वाला है। वे तो हाय मेरा नाश हो गया, फिर खानाना-पिना कहीं नहीं मिलेगा, नहीं मालूम मेरे पश्चात् क्या होगा, कैसे मरूँगा, अब यह देखना-मिलना कुटुम्ब का समागम सब मेरा गया, अब किसकी शरण में जाऊँ, कैसे जीवित रहूँ? इस प्रकार महासंक्लेश करते हुए मरते हैं ।
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जो आत्मज्ञानी हैं उनको मृत्यु के आने पर ऐसा विचार आता है: मैंने तो देहरूप बन्दीगृह में पराधीन रहते हुए इन्द्रियों के विषयों की चाह की दाह से मिले हुए विषयों की अतृप्ति से, नित्य क्षुधा - तृषा शीत-उष्ण रोगों से उत्पन्न महावेदना से एक क्षण को भी सुख नहीं पाया है। महान दुःख, पराधीनता, अपमान, घोर वेदना, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग भोगते हुए महा संक्लेश से ही काल व्यतीत किया है। अब ऐसे कष्टों से छुड़ाकर, पराधीनता रहित, मुझे अनन्त सुख स्वरूप, जन्म
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