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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४४३ मरण रहित, अविनाशी स्थान को प्राप्त करानेवाला यह मरण का अवसर प्राप्त हुआ है। यह मरण महासुख देनेवाला है अत्यन्त उपकारक है। यह संसारवास केवल दुःखरुप है। इसमें एक समाधिमरण ही शरण है, अन्य कोई ठिकाना नहीं है; इसके बिना चारों गतियों में महान कष्ट ही भोगा है। अब संसारवास से अत्यन्त विरक्त मैं समाधिमरण की शरण ग्रहण करता आत्मा को परलोक जाने से कोई नहीं रोक सकता है : पुराधीशो यदा याति स्वकृतस्य बुभुत्सया । ___ तदासौ वार्यते केन प्रपञ्चैः पञ्चभौतिकै : ।।११।। अर्थ :- जिस समय यह आत्मा अपने किये हुए कर्मों का फल भोगने की इच्छा से परलोक को जाता है, उस समय इसे पंचभूत ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) संबंधी शरीर आदि के प्रपंचों द्वारा कौन रोक सकता है ? भावार्थ :- जब इस जीव की वर्तमान आयु पूर्ण हो जाती है, तथा अन्य परलोक संबंधी आयु, काय आदि का उदय आ जाता हैं तब परलोक को गमन करनेवाले आत्मा को शरीरादि पंचभूत कोई भी रोकने में समर्थ नहीं होता है । अतः चार आराधनों की बहुत उत्साह सहित शरण ग्रहण कर मरण करना श्रेष्ठ है ? समाधिमरण निर्वाण देनेवाला है: मृत्युकाले सतां दुःखं यद् भवेद्व्याधि संभवम् । देहमोहविनाशाय मन्ये शिवसुखाय च ।।१२।। अर्थ :- मृत्यु के समय पूर्व कर्म के उदय से रोगादि व्याधियों द्वारा जो दुःख उत्पन्न होता है वह सत्पुरुषों को देह की ममता छुड़ाने के लिये तथा निर्वाण का सुख प्राप्त कराने के लिये होता है। भावार्थ :- जिस दिन से इस जीव ने जन्म लिया है उसी दिन से देह में तन्मय होकर इसी में रहने को ही बड़ा सुख मानता है । इस देह को अपना निवास स्थान जानता है, इसी से ममता कर रहा है, इसमें रहने के सिवाय अन्य कहीं अपना ठिकाना नहीं दिखाई देता है। जब इस देह में रोगादि के द्वारा दुःख उत्पन्न होता है तब सत्पुरुषों का इससे मोह नष्ट हो जाता है, तथा यह साक्षात् दुःखदाई , अस्थिर, विनाशीक दिखाई देता है। देह का कृतघ्नपना जब प्रकट दिखाई देता है तब यह आत्मा अविनाशी पद की प्राप्ति के लिये उद्यमी होता है, वीतरागता प्रकट हो जाती है। ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि रोग उपकारी है। इस देह से ममता करके मैंने अनन्तकाल जन्म-मरण, अनेक वियोग, रोग, सन्ताप आदि नरकादि गतियों में बहुत दु:ख भोगे हैं। ऐसे दु:खदायी देह में ही फिर से ममत्व करके, क्या अब भी अपने को भूल करके एकेन्द्रिय आदि अनेक कुयोनियों में भ्रमण का कारण का कर्म बंध करने के लिये ममता करूँ ? शरीर में अभी जो ज्वर, Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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