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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार [४४१ निंद्य कर्म करते हो तो भी वांछा पूर्ण नहीं होती है; किन्तु दुःख के मारे मरण ही करते हो, कुटुम्बादि को छोड़कर विदेशों में परिभ्रमण करते हो, निंद्य आचरण करते हो तथा निंद्य कर्म करते हो तो भी मरण तो अवश्य ही करोगे । यदि एकबार भी समता धारण करके त्यागवत सहित मरण करोगे तो फिर संसार परिभ्रमण का अभाव करके अविनाशी सुख को प्राप्त हो जाओगे । इसलिये ज्ञानसहित पण्डितमरण करना ही उचित है। समाधिमरण उत्तम दातार है: जीर्ण देहादिकं सर्व नूतनं जायते यतः। स मृत्यः किं न मोदाय सतां सातोत्थितिर्यथा ।।८।। अर्थ :- जिस मृत्यु से जीर्ण देहादि सब छूटकर नये मिल जाते है वह मृत्यु सत्पुरुषों के लिये साता के उदय के समान क्या हर्ष का कारण नहीं है ? ज्ञानियों की मृत्यु तो उन्हें हर्ष का ही कारण होती है। भावार्थ :- यह मनुष्यों का शरीर भोजन कराते हुए भी नित्य ही समय-समय जीर्ण होता जाता है; देवों के शरीर के समान वृद्धावस्था रहित नहीं है । दिन-दिन बल घटता जाता है; कान्ति व रुप मलिन होता जाता है; कोमल से कठोर होता जाता हैं; सभी नसों के-हड्डियों के जोड़-बंधन ढीले होते जाते है; चमड़ा ढीला होता जाता है; मांसादि को छोड़कर झुर्रियों युक्त होता जाता है; नेत्रों की सुन्दरता बिगड़ जाती है; कानों की श्रवण करने की शक्ति घटती जाती है; हाथों-पैरों में दिन-दिन कमजोरी बढ़ती जाता हैं चलने की शक्ति धीमी होती जाती है; चलते, बैठते, उठते, श्वास बढ़ने लगती है; कफ बढ़ने लग जाता है, अनेक रोग बढ़ते जाते हैं; ऐसी जीर्ण देह का दुःख कहाँ तक भोगता व ऐसे देह का घींसना (घसीटना) कहाँ तक होता ? मरण नामक दातार के बिना ऐसे निंद्य देह से छुड़ाकर नवीन देह में निवास कौन कराता ? जीर्ण शरीर में असाता का बड़ा उदय भोगना पड़ता है। मरण नामक उपकारी दाता के बिना ऐसी असाता कौन दूर कर सकता है ? जो सम्यग्ज्ञानी हैं वे तो मृत्यु के आने पर बड़ा हर्ष मानते हैं, तथा व्रत, संयम, त्याग, शील में सावधान होकर ऐसा प्रयत्न करते हैं, जिससे फिर ऐसी दुःख की भरी देह को धारण ही नहीं करना पड़े । सम्यग्ज्ञानी तो इसी को महासाता का उदय मानते हैं। ज्ञानी भय रहित होता है : सुखं दुःखं सदा वेत्ति देहस्थश्च स्वयं व्रजेत् । मृत्युभीतिस्तदा कस्य जायते परमार्थतः ।।९।। ___ अर्थ :- यह आत्मा देह में रहता हुआ भी सदाकाल सुख को व दुःख को जानता ही है । परलोक की ओर गमन स्वयं करता है तो परमार्थ से मृत्यु का भय किसको होगा ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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