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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४४०]
और भी कहते है :- सुख देने वाला मित्र समाधिमरण है :
सर्वदुःखप्रदं पिण्डं दूरीकृत्यात्मदर्शिभिः ।।
मृत्युमित्रप्रसादेन प्राप्यन्ते सौख्यसम्पदः ।।६।। अर्थ :- जो आत्मादर्शी आत्मज्ञानी हैं वे मृत्यु नामक मित्र की कृपा से सर्व दुःखों को देनेवाले देह पिण्ड को दूर छोड़कर सुख की सम्पदा को प्राप्त करते हैं ।।
भावार्थ :- जो इस सप्तधातुमय महा अशुचि विनाशीक देह को छोड़कर दिव्य वैक्रियिक देह में प्राप्त होनेवाला अनेक सुखों की संपत्ति प्राप्ति करते हैं, वह सब आत्मज्ञानियों के समाधिमरण का प्रभाव है । समाधिमरण समान इस जीव का उपकार करनेवाला कोई नहीं है।
इस देह में अनेक प्रकार के दुःख भोगना, महान रोगादि दुःख भोग-भोग कर मरना फिर तिर्यंच देह में नर्क में व नर्क में असंख्यात काल तक असंख्य प्रकार के दुःख भोगना, जन्म-मरणरुप अनन्त परिवर्तन करना, जहाँ कोई शरण नहीं ऐसे इस संसार में परिभ्रमण से रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं है ।
अशुभ कर्म के कुछ मंद उदय से मनुष्यगति, उच्चकुल, इंन्द्रियों की पूर्णता, सत्पुरुषों की संगति व भगवान जिनेन्द्र का परमागम का उपदेश प्राप्त हुआ है। अब यदि सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-त्याग-संयमसहित, समस्त कुटुम्ब परिग्रह में ममत्व रहित होकर , देह से भिन्न ज्ञान स्वभावरुप आत्मा का अनुभव करके, भय रहित, चार आराधना की शरणसहित मरण हो जाये तो इस समान तीनलोक में तीनकाल में इस जीव का हित अन्य नहीं है। संसार परिभ्रमण से छूट जाना ही इस समाधिमरण नाम के मित्र की कृपा का फल है। समाधिमरण कल्पवृक्ष हैं :
मृत्युकल्पद्रुमे प्राप्ते येन आत्मार्थो न साधितः ।
निमग्नो जन्मजम्बाले स पश्चात् क करिष्यति ।।७।। अर्थ :- जो जीव मृत्यु नामक कल्पवृक्ष के प्राप्त होने पर भी अपना कल्याण सिद्ध नहीं कर सका, वह जीव संसाररुप कीचड़ में डूबा हुआ फिर बाद में क्या करेगा? ___भावार्थ :- इस मनुष्य जन्म में मरण का संयोग है वह साक्षात् कल्पवृक्ष हैं, जो वांछित लेना है वह ले लो। यदि ज्ञान सहित अपने निज स्वभाव को ग्रहण कर आराधना सहित मरण करोगे तो स्वर्ग का महर्द्धिकदेवपना, इन्द्रपना, अहमिन्द्रपना पाकर पश्चात् चक्रीपना, तीर्थकरपना पाकर निर्वाण को प्राप्त हो जाओगे। मरण समान तीनलोक में दाता दूसरा नहीं है। ऐसे दाता को पाकर भी यदि विषय कषायों की वांछा सहित ही रहोगे तो विषय वांछा का फल तो नरक निगोद है। मरण नाम के कल्पवृक्ष को बिगाड़ोगे तो ज्ञानादि अक्षयनिधान रहित होकर संसाररुप कीचड़ में डूब जाओगे।
हे भव्य ! यदि तुम वांछा के मारे हुए खोटे नीच पुरुषों का सेवन करते हो, अतिलोभी होकर विषयों को भोगने के लिये धन की प्राप्ति हेतु हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह में आसक्त होकर
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