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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [४३३ देह तो अनन्तभव धारण करके छोड़ी है, किन्तु यह रत्नत्रय धर्म अनन्तभवों में प्राप्त नहीं हुआ, इसलिये दुर्लभ है, संसार परिभ्रमण से रक्षा करनेवाला है, ऐसा धर्म मेरा परलोक तक मलिन नहीं हो - ऐसा निश्चय करके देह से ममता छोड़कर पंडितमरण के लिये उद्यम करना चाहिये । अब समाधिमरण की महिमा कहनेवाला श्लोक कहते हैं : अंतः क्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।।१२३ ।। अर्थ :- अंत क्रिया अर्थात् सन्यासमरण, वही जिस तप का आधार हो, उस तप के फल की सकलदर्शी सर्वज्ञदेव भगवान स्तुवते अर्थात् प्रशंसा करते हैं । जिस तप के करनेवाले को तप के फल से अन्त में सन्यास मरण नहीं हुआ वह तप निष्फल है। इसलिये जितनी अपनी सामर्थ्य हो उतना समाधिमरण करने में प्रकृष्ट यत्न करना योग्य है । भावार्थ :- तप, व्रत, संयम करने के लोक में अनेक फल हैं। तप करने का फल देवलोक है। मिथ्यादृष्टि तप के प्रभाव से नवमें ग्रैवेयिक तक में अहमिन्द्र हो जाता है, महान ऋद्धि-संपदा प्राप्त हो जाती है। तप का फल चक्रवर्तीपना, नारायणपना, बलभद्रपना, राजेन्द्रपना, विभव, संपदा, रुप, निरोगपना, बलवानपना आदि अनेक प्रकार का है। अखण्ड आज्ञा, ऐश्वर्य, ऋद्धि, विभव परिवार ये समस्त तप का फल है। अंत में समाधिमरण किये बिना समस्त देवादि की संपदा अनेकबार भोग भोगकर संसार में ही परिभ्रमण किया; परन्तु तप करके अंत में जिसने समाधिमरण की विधि से आराधनाओं की शरण सहित, भय रहित मरण किया, उसके तप के फल की सर्वदर्शी भगवान प्रशंसा करते हैं। जिसने कोटिपूर्व वर्ष पर्यन्त तप किया हो; किन्तु अन्त समय में यदि उसका मरण बिगड़ गया हो तो उसका तप प्रशंसा योग्य नहीं है । तप करने से देवलोक-मनुष्यलोक की संपदा पा जाय; परन्तु मरण समय में आराधना के नष्ट हो जाने से संसार परिभ्रमण ही करेगा । जैसे कोई अनेक दूर देशों में भ्रमण करके बहुत धन उपार्जन करके आ रहा हो; किन्तु अपने नगर के समीप आकर समस्त धन लुटवाकर दरिद्री हो जाता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवन भर पर्याय में तप, व्रत, धारण किये रहा; किन्तु अंत समय में आराधना नष्ट कर दी, तो वह अनेक भवों में जन्म-मरण करने का ही पात्र होगा। अब सल्लेखना ग्रहण करने के प्रारंभ में क्या करना चाहिये, यह कहनेवाला श्लोक कहते है:स्नेहं वैरं सङ्गं परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत् प्रियैर्वचनैः ।। १२४।। अर्थ :- स्नेह, बैर, संग, परिग्रह इनका त्याग करके शुद्ध मनवाला होकर, स्वजन तथा परिजन के जनों के प्रति क्षमा ग्रहण करके, तथा आप भी समस्त परिजनों से प्रिय हितरुप वचनों द्वारा क्षमा मांगकर क्षमा ग्रहण करावे । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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