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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४३२]
सप्तम - सल्लेखना अधिकार
प्रथम सल्लेखना के समय का वर्णन करनेवाला श्लोक कहते है :
उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे ।
धर्माय तनुविमोचनमाहु : सल्लेखनामार्या : ।।१२२।। अर्थ :- जिसका इलाज नहीं दिखता हो, मिटने का उपाय नहीं दिखता हो, ऐसा उपसर्ग होने पर, दुर्भिक्ष आ जाने पर, वृद्ध अवस्था आ जाने पर, रोग हो जाने पर, धर्म की रक्षा के लिये जो शरीर का त्याग किया जाता है, उसे गणधरदेव सल्लेखना कहते हैं ।
भावार्थ :- देह में रहना तथा देह की रक्षा करना तो धर्म को धारण करने के लिये है; मनुष्यपना इंद्रियाँ और मन इत्यादि का प्राप्त करना वह सब तो धर्म का पालन करने से ही सफल हैं। जहाँ धर्म ही का नाश होता दिखाई दे, ऐसा निश्चय हो जाय कि अब धर्म नहीं रहेगा, श्रद्धान-ज्ञान-चारित्र नष्ट हो जायेगा, वहाँ धर्म की रक्षा के लिये देह का त्याग करना सल्लेखना है।
कोई पूर्व जन्म का बैरी, असुर, पिशाच आदि देव आकर उपसर्ग करे; दुष्ट बैरी, भील, म्लेच्छादि, सिंह, व्याघ्र , गज, सर्पादि दुष्ट तिर्यंचकृत उपसर्ग आ गया हो; प्राणों का नाश करनेवाला पवन, वर्षा, गड़ा (भूकम्प), शीत, उष्णता, धूप, अग्नि, पाषाण, जलादि कृत उपसर्ग आ गया हो; दुष्ट कुटुम्ब के बांधब आदि स्नेह से या मिथ्यात्व की प्रबलता से, अपने भरण पोषण के लोभ से चारित्र (धर्म) के नाश करने को उद्यमी हो गये हो; तथा दुष्ट राजा, राजा का मंत्री इत्यादि कृत उपसर्ग आ जाय तो वहाँ सल्लेखना करना चहिये ।
निर्जन वन में दिशा भूल हो जाय, मार्ग नहीं मिले; जिसमें अन्नपान मिलना बंद हो जाय ऐसा दुर्भिक्ष आ जाय; समस्त देह को जीर्ण कर देनेवाली, नेत्र कर्ण आदि इंद्रियों का कार्य नष्ट करने वाली. जंघा बल नष्ट करनेवाली, हाथ पैरों को शिथिल कर असमर्थ कर देनेवाली जरा ( वृद्धावस्था) आ जाय उस समय सल्लेखना करना उचित है ।
असाध्य रोग आ जाय, प्रबल ज्वर, अतिसार, श्वास, कास, कफ का बढ़ जाना, वातपित्तादि की प्रबलता होना, अग्नि की मंदता से क्षुधा का घट जाना, शरीर में रक्त का अभाव हो जाना, कठोदर, सोजा इत्यादि विकार की प्रबलता हो जाना, तथा रोंगों की दिन- प्रतिदिन वृद्धि होते जाना, ऐसे समय में शीघ्र ही धैर्य धारण करके उत्साह सहित सल्लेखना करना ही उचित है ।
ये अवश्य मरण के कारण आकर जहाँ प्राप्त हो जायें वहाँ चार आराधनाओं की शरण ग्रहण करके समस्त देह, गृह, कुटुम्ब आदि से ममत्व छोड़कर अनुक्रम से आहार आदि का त्याग कर देह को त्याग देना चाहिये। देह नष्ट हो जाय, किन्तु आत्मा का स्वभाव जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं वे जैसे नष्ट नहीं हों वैसा प्रयत्न करना चाहिये । यह देह तो विनाशीक है, अवश्य ही नष्ट होगी; करोड़ों उपायों से, देव, दानव, मंत्र, तंत्र, मणि, औषधि आदि कोई रक्षा करनेवाला नहीं है।
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