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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार भावार्थ :- सम्यग्दृष्टि के स्नेह तथा बैर दोनों का अभाव होता है। सम्यग्ज्ञानी ऐसा विचार करता है – मैं तो कर्म के वश होकर इस पर्याय में यहाँ आकर उत्पन्न हुआ हूँ । पण्य-पाप कर्म के उदय के आधीन जो बाह्य स्त्री-पत्रादि इस पर्याय के उपकारक तथा अपकारक द्रव्य प्राप्त हुए थे, उनमें से जिन को इस पर्याय के उपकारक जाना उनसे दानसन्मान आदि द्वारा स्नेह किया तथा जो इस पर्याय के उपकारक द्रव्यों को नष्ट करनेवाले थे, उनको चारित्रमोह के उदय से बैरी मानकर उनसे पराङ्मुख रहा। अब इस पर्याय के विनाश होने का समय आ गया है, अब मैं किससे स्नेह करूँ किससे बैर करूँ ?
मेरा इन सभी के आत्मा के साथ संबंध तो हैं ही नहीं। मैं इनके आत्मा को जानता नहीं हूँ, ये लोग हमारे आत्मा को जानते नहीं हैं। केवल हमारा और इनके शरीर का चमड़ा दिखाई देता है। इस दिखनेवाले चमड़े से ही मित्र-शत्रु का संबंध है, किन्तु ये चमड़े तो अग्नि में भस्म हो जायेंगें तथा एक-एक परमाणु उड़ जायेगा। अब किससे स्नेह-बैर का भाव रखें ?
जो कोई आपसे बिना कारण अभिमानवश ही बैर करनेवाले हों, उनसे नम्र होकर क्षमा मांगेयदि मेरी भूलचूक हो गई है, यदि मैं आप सरीखे लोगों से अपरिचित रहा हूँ तो मैं अब आपसे प्रार्थना करता हूँ; मेरा अपराध क्षमा कर दें, आप सरीखे सज्जनों के बिना क्षमा कौन करेगा?
यदि आपने किसी की धन-धरती छीन ली हो तो वह उन्हें वापिस देकर प्रसन्न कर कहे-मैंने दुष्टता से आपका धन रख लिया था, जमीन-जायगा छीन ली थी वह अब आप यह वापिस लीजिये; मैं पापी हूँ, दुष्टता से , छलकपट से, लोभ से अंधा होकर मैंने दुराचार किया हैं; अब मैं अंतरंग में पश्चाताप करता हूँ; मैंने आपको बहुत दुःख दिया है, मैंने जो अपराध कर दिया है वह तो अब किसी प्रकार से वापिस होता नहीं है, अब मैं क्या करूँ, आप मुझे क्षमा करें । इत्यादि सरल भावों से क्षमा मांगे तथा क्षमा करे ।
जो अपने कुटुम्बी, स्नेही, मित्रादि हों उनसे इस प्रकार कहना चाहिये - तुम हमारे स्नेही-संबंधी हो, परन्तु हमारा तुम्हारा तो इसी पर्याय का संबंध है; तुम इस देह के उत्पन्न करनेवाले माता-पिता हो, इस देह से उत्पन्न पुत्र-पुत्री हो; इस देह को रमण करानेवाली स्त्री हो, इस देह से कुल के संबंधी बंधुजन हो; हमारा तुम्हारा इस विनाशीक पर्याय का संबंध इतने समय तक रहा हैं; यह पर्याय तो आयुकर्म के आधीन है, अब अवश्य नष्ट होगी, इस विनाशीक से स्नेह करना व्यर्थ है; इस देह से स्नेह करोगे तो भी यह रहनेवाला नहीं है; यह तो अग्नि से भस्म होकर बिखर जायेगा।
मेरा आत्मा ज्ञान स्वरुप है, अविनाशी है, अखण्ड है, मेरा निजरुप है, जिन स्वभाव का विनाश नहीं होता है। जिसका संयोग हुआ है उसका अवश्य वियोग होगा। जो अनेक पुद्गल परमाणुओं से मिलकर बना है उसका अवश्य विनाश ही होगा। इसलिये इस विनाशीक अज्ञान, जड़ स्वरुप मेरे पुद्गल देह से स्नेह छोड़कर, अपने अविनाशी ज्ञायक आत्मा के उपकार करने में उद्यमी होना योग्य है। जिस प्रकार से मेरे ज्ञानदर्शन स्वभावी आत्मा का राग-द्वेष-मोहादि से घात नहीं
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