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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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जब यह विषय कषायों की इच्छा ही दुर्गति कर देती है, तो फिर इनके लिये खोटी विद्या, खोटे मंत्रादि द्वारा ध्यान करना आत्मा में मिथ्यात्व व कषायों का दृढ़ आरोपण करना है; जो निगोदादि में अनंतकाल तक परिभ्रमण कराता ही है। ___ बुद्धिमान को तो ऐसा ध्यान करना, ऐसा चिन्तवन करना, तथा ऐसा आचरण करना चाहिये जिससे जीव के कर्मबंध का विध्वंस हो जाय। जो शांतचित्त हैं, मंद कषायी हैं, निर्वांछक हैं, संतोषी हैं, मोक्षमार्ग के अवलंबी हैं उनको विद्या की साधना तथा देव की आराधना के बिना ही स्वयमेव अनेक सिद्धियाँ, अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। जो नीच वांछा के धारक, हीन पुण्य के धारक हैं, उनके इच्छानुसार कुछ भी नहीं होता, किन्तु अनेक मंत्रादि की साधना करते हुए भी अनेक विपत्तियाँ ही प्राप्त होती हैं। इसलिये वीतराग धर्म के श्रद्धानी को स्वप्न में भी नीच ध्यान, मंत्रादि की प्रशंसा नहीं करना चाहिये ।।
रुपातीत धर्मध्यान (४) : जो शरीरादि नोकर्म व ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म रहित, चैतन्य स्वरुप निजानंदमय, शुद्ध , अमूर्त, अविनाशी, अजन्मा, स्पर्श-रस-गंध-वर्णादि पुद्गल विकार रहित, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतसुख स्वभावी, स्वाधीन, निराकुल , अतीन्द्रिय, सिद्ध, कृतकृत्य ऐसा शुद्ध आत्मा के स्वभाव का चिंतवन करना है वह रुपातीत ध्यान है। यद्यपि चित्त का एकाग्रपना ध्यान है तथापि सिद्ध परमेष्ठी के गुण समूह व उनके स्वरुप का ध्यान में अवलोकन कर अन्य सभी की शरण छोड़कर निज स्वरुप में लीन हो जाना वही धर्मध्यान है।
सिद्ध परमेष्ठी के गुण समूह के स्वभाव रुप अपने स्वरुप का अनुभव करना वही परमात्मा में युक्त होना है। परमात्मा में और हममें गुणों की ओर से तो समानता है; परन्तु हमारे गुण कर्मों से आच्छादित हैं, सिद्ध परमेष्ठि के समस्त गुण कर्मों का अभाव हो जाने से प्रकट हो गये हैं। इस प्रकार का निरन्तर अभ्यास करने से आत्मा को ऐसा दृढ़ श्रद्धान हो जाता है कि स्वप्न में भी सिद्धों का स्वभाव प्रत्यक्ष दिखाई देता है उसे रुपातीत ध्यान होता है। इस प्रकार रुपातीत ध्यान का वर्णन करके धर्मध्यान का वर्णन समाप्त हुआ ।४।
शुक्लध्यान : अब शुक्लध्यान का वर्णन करने का अवसर आ गया है। यद्यपि शुक्लध्यान के परिणाम एक देश मात्र भी मेरे लिये साक्षात् नहीं हुए हैं तथापि आगम की आज्ञा के अनुसार कुछ लिखते हैं।
शुक्लध्यान के चार भेद हैं – पृथक्त्व वितर्क विचार १, एकत्व वितर्क अविचार २, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ३, व्युपरत क्रिया निवर्ति ४। इनमें प्रथम दो शुक्लध्यान तो पूर्वो के ज्ञाता द्वादशांग के धारी मुनियों के होते हैं, तथा शेष दो शुक्लध्यान केवली भगवान के होते हैं। इनमें प्रथम शुक्ल ध्यान तो मन-वचन-काय के तीनों योगों में होता है। दूसरा शुक्लध्यान किसी भी एक योग में ही होता है। तीसरा शुक्लध्यान केवल एक काय योग में ही होता है। चौथा शुक्लध्यान अयोगी के ही होता है।
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