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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४२४] पृथक्त्व वितर्क विचार शुक्लध्यान (१) : प्रथम शुक्लध्यान तो सवितर्क, सविचार होता है। सवितर्क शब्द का अर्थ है श्रुतज्ञान के शब्द व अर्थ का अवलंबन सहित है। सविचार शब्द का अर्थ है पलटना। अर्थ का पलटना. शब्द का पलटना. योग का पलटना स है वह पृथक्त्व वितर्क विचार ध्यान है। अनेक शब्द , पदार्थ व योगों का पलटना इस ध्यान में होता है ( किन्तु यह ध्यान निर्विकल्प दशा में होने से उस ध्यान कर्ता को यह खबर नहीं होती है कि मेरे अर्थ, शब्द, योग पलट रहे हैं, इसका ज्ञान तो केवलज्ञानी को होता है। दुसरा शुक्लध्यान श्रुत का एक शब्द , एक अर्थ ( पदार्थ) एक योग के अवलंबन से होता है। जिसका अवलंबन किया उससे परिणाम पलटते नहीं हैं इसलिये यह एकत्व वितर्क अविचार नाम का दूसरा शुक्लध्यान है। यह श्रुतज्ञान का नाम वितर्क है, तथा अर्थ (पदार्थ) व्यंज व योग की संक्रांति अर्थात् पलट जाने का नाम विचार है। अर्थ नाम तो ध्यान करने योग्य ध्येय का है; वह ध्येय द्रव्य व पर्याय होती है। व्यंजन नाम वचन का है। योग नाम मन, वचन, काय की हलन-चलनरूप क्रिया का है। संक्रान्ति नाम परिवर्तन का है। द्रव्य को छोड़कर पर्याय को प्राप्त हो जाना, पर्याय को छोड़कर द्रव्य को प्राप्त होना वह अर्थ संक्रान्ति नाम परिवर्तन का है। द्रव्य को प्राप्त होना वह अर्थ संक्रान्ति है। एक श्रुत के शब्द को ग्रहण कर अन्य श्रुत के वचन को ग्रहण करना, उसके वचन को छोड़कर अन्य श्रुत के वचनों का अवलंबन करना , वह व्यंजन संक्रान्ति है। काययोग को छोड़कर अन्य योग को ग्रहण करना, यह योग संक्रान्ति है। ऐसे परिवर्तन को विचार कहते हैं। इस प्रकार सामान्य और विशेष से जो चार धर्मध्यान और चार शुक्लध्यान कहे तथा पहिले अनेक प्रकार से गुप्ति आदि संसार के अभाव करने के उपाय कहे है; वे सभी महामनियों के धारण करने योग्य कहें हैं। ध्यान की सामग्री व ध्यान की विधि : यहाँ ध्यान के आरंभ करने के समय इतना परिकर ( सामग्री) अवश्य होता है: जिस काल में शरीर के तीन उत्तम संहनन सहित परिषहों की बाधा सहन करने की शक्ति आत्मा को प्राप्त होती है, उस काल में ध्यान के संयोग का परिचय करने के लिये प्रारंभ करे। कैसे करे ? सो कहते हैं : पर्वत, गुफा, कंदरा, नदी के तट, दरी, वृक्षों के कोटर, श्मशान, जीर्ण उद्यान, शून्य गृहादि में कोई एक अवकाश (खाली) स्थान हो। वह स्थान कैसा हो ? सर्प, मृग, पशु, पक्षी, मनुष्यों के आवागमन से रहित हो; आगन्तुक कीड़े, कीड़ी, बिच्छु, डांस , मच्छर, मधुमक्खी आदि जीवों से रहित हो। जहाँ पर बहुत गर्मी, ठण्ड, हवा, पानी, वर्षा, लू की बाधा नहीं हो; भीतर सब प्रकार के मन को तथा बाहर शरीर को बाधा पहुँचानेवाले कारणों का अभाव हो। ऐसी पवित्र, अनुकूल स्पर्श योग्य जमीन पर सुख से बैठकर, पद्मासन लगाकर सम सरल, कठोरता रहित शरीर को निश्चल करके; अपनी गोदी में बांयी हथेली पर दांयी हथेली सीधी रखकर; नेत्रों Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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