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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४२२] घातिया कर्मों के अभाव से ये समस्त दोष नष्ट हो गये हैं। अतः अनन्त सुखरुप परमात्मा परमपूज्य परमेश्वर अनन्तगुणों से भूषित, कोटि सूर्य समान उद्योत के धारक, अनेक अतिशयों से युक्त, अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुखरुप से विराजमान हैं। इस प्रकार अर्हत के स्वरुप का ध्यान करना वह रुपस्थ धर्मध्यान है। जो पुरुष वीतराग होकर (४ थे गुणस्थान से छटवें गुणस्थान तक) वीतराग को ( तेरहवें गुणस्थान वालों को) स्मरण करता है वह कर्मबन्धन से छूटता है। जो स्वयं रागी (प्रथम गुणस्थान वाला) होते हुए सरागी (प्रथम गुणस्थान वाले गृहीत मिथ्यादृष्टि) का अवलम्बन करता है वह दुष्ट कर्मों का बंध करता है; क्रोधी होकर ध्यान करनेवाला भी अनेक प्रकार के विकारीभाव करता हुआ असार ध्यान के मार्ग का अवलम्बन करता है। जो मंत्र, मंडल, मुद्रादि अनेक उपायों से ध्यान करने में उद्यमी हैं उनको आत्मा में एकाग्र होकर जुड़ने से ऐसी सामर्थ्य प्रकट हो जाती है कि क्षण भर में सुर, असुर, मनुष्यों के समूह को क्षोभ को प्राप्त करा देते हैं। विद्यानुवाद पूर्व में अनेक विद्या, मंडल, मंत्र, अक्षरों आदि की सामर्थ्य आत्मा के भाव जुड़ने से प्रकट होने का वर्णन किया है क्योंकि अनादि निधन वस्तुओं का स्वभाव किसी के द्वारा दूर करने से दूर नहीं होता है। जैसे-कितने ही पुद्गलों का संयोग होने से विष हो जाता है, कितने ही अमृत हो जाते हैं, कितनों को शरीर में लगाने से विकार दूर हो जाते हैं, कितने ही खाने से मर जाते हैं। वचन के पुद्गलों में भी अचिन्त्य सामर्थ्य है, जिनसे आत्मा में क्रोधादि विकार प्रकट हो जाते हैं, आजन्म के कषाय दूर हो जाते हैं, मंत्रादि से जहर उतर जाता है, जहर फैल जाता है। इसी प्रकार मन के एकाग्र होकर जुड़ने में ध्यान की अचिंत्य सामर्थ्य है। नरक स्वर्ग मोक्ष होने का कारण ध्यान ही है। कितने ही असंख्यात ध्यान तो कौतूहाल के लिये कुमार्ग में प्रर्वतानेवाले कुगति के कारण कुध्यान है। आत्मा में अनन्त सामर्थ्य स्वभाव से ही है। जैसा बाह्य निमित्त मिल जाता है वैसा परिणमन हो जाता है; इसलिये जो जिनेन्द्र धर्म के धारक हैं वे खोटे ध्यान, कुमंत्र, मंडलादि साधन कौतुक द्वारा स्वप्न में भी कभी सेवन नहीं करो। कुध्यान आदि के प्रभाव से सम्यङ्मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं, सच्ची उज्ज्वल बुद्धि नष्ट हो जाती है, फिर अनेक भवों में बुद्धि में शुद्धता नहीं आती है, मिथ्यामार्ग नहीं छूटता है। सन्मार्ग छूटने पर असंख्यात भवों तक सम्यग बुद्धि प्रकट नहीं होती है, जिन सिद्धान्त के सत्य उपदेश हृदय में प्रवेश नहीं करते हैं, बुद्धि विपरीत हो जाती हैं। अतः असद् ध्यान, खोटे मंत्रादि केवल आत्मा के नाश के लिये हैं , रागादि बढ़ानेवाले हैं; गृहीत मिथ्यात्व हैं। जो पुरुष निम्न कोटि के ध्यान, खोटे मंत्र, मुद्रा, मंडल, यंत्र प्रयोग आदि द्वारा रागी, द्वेषी, कामी, क्रोधी, नीच व्यंतर देव, भवनवासी देव, ज्योतिषी देव , देवियों , यक्ष यक्षिणी की आराधना करते हैं, वे संसार के विषय, धन, तथा कषायों की, खोटी आशा के चाहनेवाले होकर भोगों के दुःख भोगकर अपने पूर्व पुण्य का घात करके नरक को प्राप्त हो जाते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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