________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[४११ दुर्ध्यान आदि का त्याग करके कर्म की निर्जरा करनेवाली वीतरागता को कारण पंच परमेष्ठी के वाचक मन्त्र पदों का ही ध्यान करो। इस प्रकार धर्मध्यान के भेदों में पदस्थध्यान का वर्णन किया।।
रुपस्थ धर्मध्यान (३) : अब रुपस्थ धर्मध्यान में- भगवान अर्हन्त परमेष्ठी समोशरण में विराजमान असंख्यात इन्द्रादि देवों द्वारा वंदनीय द्वादश सभाओं के जीवों को परम धर्म का उपदेश देते हुए का- ध्यान करने का उपदेश देते हैं
समोशरण वर्णन भगवान अर्हन्त के धर्मोपदेश देने का जो सभास्थान है, वह समोशरण है। वह भूमि से पाँच हजार धनुष ऊँचा आकाश में बीस हजार सीढ़ियों सहित होता है। हरित-नील मणिमय जिसकी भूमि समवृत्त झालर के आकार का गोल होता है। ऐसा दिखता है मानो तीनलोक की लक्ष्मी का मुख अवलोकन करने का दर्पण ही है।
इस सभा स्थान का वर्णन करने को कौन समर्थ है ? इसका सूत्रधार सौधर्म इन्द्र है, जो अनेक प्रकार की रचना करने में समर्थ है,उसका वर्णन हम सरीखे मंदबुद्धि कैसे कर सकते हैं ? तो भी शुभ ध्यान होने के लिये, तथा श्रवण-चिन्तवन कर भव्य जीवों को अति आनन्द होने के लिये कुछ वर्णन करते हैं।
बारह योजन प्रमाण इन्द्रनीलमणिमय समवृत्त भूमिका तक अनेक रंगों के रत्नों की धूल से बना धूलिशाल कोट है। कहीं पर तो हरित मणियों की कान्ति से आकाश हरित किरणमय शोभित हो रहा हैं; कहीं पर पद्मराग मणियों की प्रभा से व्याप्त है; कहीं मेचक मणियों की प्रभा से व्याप्त है; कहीं चन्द्रकान्त मणियों से व्याप्त चन्द्रमा की ज्योत्स्ना चांदनी को धारण किये हैं; कहीं पर स्वर्णमय धूल की कान्ति से दैदीप्यमान हैं।
अनेक कान्तियुक्त- रत्नों की महाप्रभा से यह धूलिशाल कोट आकाश में बलयाकार इन्द्रधनुष के समान शोभायमान हो रहा है। अनेक रत्नों की प्रभा के पुञ्ज धूलिशाल कोट की चार दिशाओं में स्वर्णमय दो-दो स्तंभ हैं। उन स्तंभों के अग्रभाग में बते हुए मकराकृत तोरण है जिनमें रत्नों की मालायें सुशोभित हैं।
उस धूलिशाल कोट के चारों तरफ भीतर प्रवेश करने के लिये एक कोस चौड़ी महावीथी (सड़क) है। उस महावीथी में कितनी ही दूर जाने पर वीथी के बीच में बहुत ऊँचे स्वर्ण के मानस्तंभ हैं। उन मानस्तंभो के चारों तरफ चार-चार द्वारों सहित तीन कोट हैं। उन तीनों कोटों के बीच में सोलह सोपान युक्त पीठ हैं। उन पीठों के बीच में बड़े ऊँचे मान स्तंभ हैं। वे पीठ सभी सुर, असुर, मनुष्यों द्वारा पूज्य हैं। उन मानस्तंभो को दूर से देखते ही मिथ्यादृष्टियों का मान चला जाता है।
उन मानस्तंभों के मूल में पीठ के ऊपर स्वर्णमय जिनेन्द्र की प्रतिमाये विराजमान हैं; उनका इन्द्रादि देव क्षीर समुद्र के जल से अभिषक करते हैं। उस जल से वह पीठ पवित्र होती रहती
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com