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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४१०] स्वप्न में भी ध्यान की सिद्धि नहीं होती है। आपदारुप महाकीचड़ में फंसे हुए, प्रबलरागरूप पिंजड़े में पीड़ित हो रहे, तथा परिग्रहरूप विष से मूर्च्छित गृहस्थ आत्मा का हितरुप ध्यान करने में असमर्थ हैं। अपने ही आरम्भ - परिग्रह में ममतारूप बुद्धि से स्वयं ही अपने को बांधकर पराधीन हो रहे हैं। रागादिरुप बैरियों को गृह का त्यागी -संयमी हुए बिना नहीं जीता जाता है। मिथ्यादृष्टि भेषी के भी ध्यान की अयोग्यता : गृह के त्यागी होकर भी विपरीत तत्त्व को ग्रहण करने वाले मिथ्यादृष्टियों को स्वप्न में भी ध्यान की सिद्धि नहीं होती है। यतिपने में भी पूर्वापर विरुद्ध अर्थ की सत्ता का आश्रय करनेवाले पाखंडियों को भी ध्यान होना सम्भव नहीं है। सर्वथा एकान्त ग्रहण करनेवाले पाखंडी अनेकान्त स्वरुप वस्तु को जानने में ही समर्थ नहीं है, उनके ध्यान की सिद्धि कैसे होगी ? जिनेन्द्र की आज्ञा के प्रतिकूल चलनेवाले, मुनिलिंग धारण करने पर भी मन-वचन-काय की कुटीलतावाले, शिष्यादि परिग्रह से अपनी उच्चता माननेवाले, अपनी कीर्ति अभिमान पूजा सत्कार वन्दना के इच्छुक, लोगों को रंजायमान ( प्रसन्न ) करने में चतुर, ज्ञाननेत्र से अंधे, मद से उद्धत, मिष्ठ भोजन के लोलुपी, पक्षपाती, तुच्छशीली उनके मुनिभेष धारण कर लेने पर भी कभी धर्मध्यान नहीं होता है। ऐसे पाखण्डी, भेषी अन्य भोलें लोगों से कहते हैं । 1 - यह दुःखमा काल है (पंचम काल ), इसमें ध्यान की सिद्धि नहीं होती हैं। यह कहकर वे अपना तथा अन्य के ध्यान होने का निषेध करते हैं। काम, भोग, धन के लोलुपी, मिथ्याशास्त्रों के सेवक उनके ध्यान कैसे होगा ? रागभाव सहित, इंद्रियों के विषयों में लीन, करुणा रहित, हास्य, कौतुक, मायाचार, युद्ध, कामशास्त्र आदि का व्याख्यान करनेवालों को स्वप्न में भी ध्यान नहीं होता है। जो जिनेश्वर की दीक्षा धारण करके भी अपने गौरव के लिये वशीकरण, आकर्षण, मारण, उच्चाटन, जल स्तंभन, अग्नि स्तंभन, रसकर्म, रसायन, पादुका विद्या, अंजन विद्या, विष स्तंभन, पुरक्षोभ, इन्द्रजाल, बल स्तंभन, जीतहार, विद्या छेद, विद्या भेद, वैद्यक विद्या, ज्योतिष विद्या, यक्षिणी सिद्धि, पातालसिद्धि, काल वंचना, जांगुलि, सर्प मन्त्र, भूत पिशाच क्षेत्रपालादि साधन, चल मंत्रन, सूत्रबंधन इत्यादि कार्यों के लिये ध्यान करते हैं, मन्त्रसाधना करते हैं घोर तप करते हैं उनके तीव्र मिथ्यात्व व कषाय के वश से घोर पाप कर्म के बन्ध का कारण दुर्ध्यान का होना जानना। उसके प्रभाव से नरक–तिर्यंचादि कुगति में अनन्तकाल तक परिभ्रमण होता है। ऐसे पांखड़ियों की उपासना करनेवाले, अनुमोदना करनेवाले भी दुर्गति में परिभ्रमण करते है; ऐसा दृढ़ श्रद्धान करके खोटे मन्त्र-यन्त्रों का दूर से ही त्याग करो। यहाँ कोई प्रश्न करता है - खोटे मारण, उच्चाटनादि अनेक विद्या, मन्त्र, तन्त्रादि द्वादशांग में कहे हैं कि नहीं ? उसके उत्तर में कहते हैं :- द्वादशांग में तो समस्त तीन लोकों में वर्तते द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, विष, अमृत सभी कहे हैं; परन्तु विषादि को त्यागने योग्य कहा है, अमृत को ग्रहण करने योग्य कहा है। उसी प्रकार खोटे मन्त्र, खोटी विद्या त्यागने योग्य कही है। इसलिये अयोग्य विद्या का, Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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