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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४०९ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगल, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलंये चार मंगल पद; चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहन्ता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो- ये चार उत्तम पद; तथा चत्तारि शरणं पव्वज्जामि, अरिहंते शरण पव्वज्जामि, सिद्धे शरणं पव्वज्जामि, साहू शरणं पव्वज्जामि, केवल पण्णतं धम्मं शरणं पव्वज्जामि ये चार शरण पद हैं। इनका कर्मपटल नाश करने के लिये नित्य ही ध्यान करना। तीनलोक में ये चार ही मंगल है, चार ही उत्तम हैं, चार ही शरण हैं। ध्यान में निरन्तर इनका स्मरण करना। इनके सिवाय और भी अनेक मन्त्र इस जीव के राग-द्वेष-मोहमूर्छा-का नाश करने के लिये; बैर विरोध दूर करने के लिये; दुर्ध्यान का नाश करने के लिये; परमशांत भाव उत्पन्न करने के लिये; विषयों में राग नष्ट करने के लिये; पाँच इंद्रियों को जीतने के लिये; वीतरागता बढ़ाने के लिये; सभी पर वस्तु में वांछा-ममता रहित होकर गुरुओं के उपदेश से ध्यान करने योग्य हैं; जाप करने योग्य हैं; उनसे कर्मों की बहुत निर्जरा होती है, क्रम से संसार परिभ्रमण का अभाव हो जाता है। दुर्ध्यान, दुर्ध्यानी और दुर्ध्यान का फल : जो रागी-द्वेष-मोही होकर दूसरे का मारण, उच्चाटन, वशीकरण इत्यादि के लिये; विषय भोगों के लिये; बैरियों के नाश के लिये; राज्य सम्पदा ग्रहण करने के लिये; मन्त्र का जाप करते हैं, ध्यान-मुद्रा-तप इत्यादि दृढ़ होकर करते हैं वे घोर संसार परिभ्रमण का कारण मिथ्यादर्शन आदि अशुभ कर्मों का बंध करते हैं। खोटी वासना, खोटी वासना, खोटा ध्यान, तथा व्यन्तर देव, देवी, यक्षणी इत्यादि कुदेवों का, ध्यान करने से अपने परिणामों का श्रद्धान-ज्ञान से भ्रष्ट करके घोर संसार परिभ्रमण करते है। यदि कदाचित् किसी के चित की एकाग्रतारुप तप के प्रभाव से , मंद कषाय के प्रभाव से व शुभ कर्म के उदय से खोटी विद्या सिद्ध हो जाती है तो वह विषय, कषाय, अभिमान को बढ़ाकर, सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-आचरण का घात करके, पाप में प्रवर्तन करके दुर्गति का पात्र हो जाता है। इस प्रकार जानकर वीतरागता हो नष्ट करनेवाले खोटे मंत्र, यन्त्र, मुद्रा मण्डलादि का त्याग करो। ध्यान के लिये गृहस्थाश्रम की अयोग्यता:- महामोहरुप अग्नि से जलते हुए इस जगत में कषायों को छोड़कर कोई परम योगी ही पार हो पाते हैं। यहाँ हजारों कष्ट, आधि, व्याधि से व्याप्त संसार में महापराधीन राग-द्वेष-मोहरुप विष से व्याप्त अतिनिंद्य गृहवास में बड़े-बड़े बुद्धिमान भी प्रमाद आदि को जीतकर चंचलमन को वश में करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। इस गृहस्थाश्रम में अनेक धन-परिग्रह आदि के संयोग में एक-एक वस्तु की ममतारुप जाल तथा आशारुप पिशाचिनी से पकड़े गये तथा स्त्रियों के राग में अन्धे हुए ये जीव आत्मा के हित को जानने में असमर्थ हैं। इस गृहस्थाश्रम में निरन्तर आर्तध्यानरुप अग्नि में जलते हुए, खोटी वासनारुप धूम्र से ज्ञानरुप नेत्र जिनके बंद हो गये हैं, तथा अनेक चिन्तारुप ज्वर से जिनका आत्मा अचेत हो रहा है उनको Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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