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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
है। वहाँ हमेशा ही देव मनुष्यों द्वारा किये नृत्य, वादित्र, जिनेन्द्र के मंगलरुप गान होते रहते हैं। पृथ्वी पर बीच में पीठ है, उस के ऊपर पीठों की तीन कटनी, उन तीन पीठों के ऊपर स्वर्णमय मानस्तंभ , उनके मस्तक के ऊपर तीन छत्र हैं। मिथ्यादृष्टियों के मान का स्तंभन करने से तथा त्रिलोकवर्ती सुर, असुर, मनुष्यों द्वारा मानने से पूजने से इनका मानस्तंभ नाम सार्थक है।
इन मानस्तंभों के चारों तरफ चार-चार बावड़ी हैं। उन बावड़ीयों में निर्मल जल भरा है, अनेक प्रकार के कमल खिल रहे हैं स्फटिक मणिमय उनके तट हैं। उन तटों पर अनेक प्रकार के पक्षियों के शब्द हो रहे हैं। उन पक्षियों के शब्दों से तथा भ्रमरों के गुंजन से ऐसा लगता है जैसे मानों वे जिनेन्द्र के गुणों का स्तवन ही कर रहे हैं।
पूर्व दिशा के मानस्तंभ के चारों तरफ की चार बावड़ियों के नाम नन्दा, नन्दोत्तरा, नन्दवती, नन्दघोषा हैं। दक्षिण दिशा के मानस्तंभ की चारों तरफ की चार बावड़ियों के नाम विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता है। पश्चिम दिशा के मानस्तंभ की चारों तरफ की चार बावड़ियों के नाम अशोका, सुप्रसिद्धा, कुमुदा पुण्डरीका हैं। उत्तर दिशा के मानस्तंभ के चारों तरफ की चार बावड़ियों के नाम नन्दा, महानन्दा, सुप्रबुद्धा, प्रभंकारी हैं। ये सभी नाम प्रदक्षिणारुप क्रम से जानना। इस प्रकार चार दिशाओं के चार मानस्तंभों के चारों तरफ सोलह बावड़ी है। एक-एक बावड़ी के दोनों तटों के पास पैर धोने के लिये दो-दो कुण्ड हैं। कुण्डों के जलसे पैर धोकर मानस्तंभों की पूजा के लिये मनुष्य आदि जाते हैं।
यहाँ से कुछ आगे जाने पर महावीथी के मार्ग को छोड़ देने के बाद चारों तरफ से घेरे हुए जल से भरी कमलों से व्याप्त खाई है जो ऐसी लगती है मानों प्रभु की सेवा के लिये गंगा नदी ही चारों ओर से आ गई है। उस खाईरुप आकाश में तारा-नेक्षत्रों के प्रतिबिम्ब समान पुष्प शोभित हो रहे हैं। उस खाई के रत्नमय किनारों पर अनेक प्रकार के पक्षियों के समूह अनेक प्रकार के शब्दोच्चार कर रहे हैं, खाई में अद्भुत तरंगें उठ रही हैं। उस खाई तक एक योजन चौडा गोल विस्तार है। उस खाई की भमि के भीतरी भाग में चारों तरफ (घेरे में ) लताओं का वन है।
उस लता वन में अनेक प्रकार की लतायें, छोटे गुल्म वृक्ष समस्त ऋतुओं के फूलों से व्याप्त हैं, जिनमें अनेक प्रकार के पुष्पों की लतायें उजुज्वल पुष्पों से ऐसी लगती हैं मानों देवांगनाओं के मन्द हास्य की लीला को धारण किये हैं। उनके ऊपर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं तथा मंद सुगंध पवन से बेलें, वृक्ष झूम रहे हैं। उस बेलों के वन में बहुत से क्रीड़ा करने के छोटे-छोटे पर्वत हैं, रमणीक शैय्याओं सहित स्थान-स्थान पर लताओं के मंडप बने हुए हैं, जिनमें अनेक देव-देवांगनाये जिनेन्द्र का यशोगान करते हैं। अनेक लता-भवनों में हिमालय के समान शीतल चन्द्रकान्तमणि मय शिलायें देवों के विश्राम के लिये रखी हैं।
धूलिशाल कोट से लगाकर पुष्पवाड़ी तक दो योजन का गोल विस्तार है। (धूलिशाल कोट से मानस्तंभ तक एक योजन तथा आगे खाई का विस्तार एक योजन) दोनों तरफ का चार
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