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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४०६] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार धर्म के प्रसाद से विषम भी सुगम हो जाता है, महान उपद्रव भी दूर भाग जाते हैं, उद्यम रहित के भी लक्ष्मी का समागम हो जाता है। धर्म के प्रभाव से अग्नि का, जल का, पवन का, वर्षा का, रोग का, महामारी का, सिंह-सर्प-गजादि क्रूर जीवों का , नदी का, समुद्र का, विष का, पर चक्र का, दुष्ट राजा का, दुष्ट बैरियों का, चोरों का, समस्त उपद्रव दूर होकर आत्मा को अनेक सुखरुप वैभव की प्राप्ति होती है, इसलिये यदि सर्वज्ञ के परमागम के श्रद्धानी-ज्ञानी हो तो केवल धर्म की ही शरण ग्रहण करो। इस प्रकार संस्थान विचय धर्मध्यान में बारह भावनाओं का संक्षेप में वर्णन किया ।१२। धर्मध्यान के अन्य प्रकार चार भेद : धर्मध्यान के कथन का ध्यान नामक तप में वर्णन किया। अब धर्मध्यान के वर्णन में ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों में पिण्डस्थ, पदस्थ, रुपस्थ, रुपातीत ध्यान-ऐसे चार प्रकार के कहे हैं। उनका संक्षेप इस ग्रन्थ में भी बतलाते हैं। पिण्डस्थ धर्मध्यान (१) : पिण्डस्थ ध्यान में भगवान ने पाँच धारणाओं का वर्णन किया है, उनको सम्यक् जाननेवाला संयमी संसाररुप बंधन का छेद करता है। पार्थिवी धारणा, आग्नेयी धारणा, पवन धारणा, वारुणी धारणा, तत्व रुपवती धारणा-ये पाँच धारणायें जानने योग्य हैं। पार्थिवी धारणा (१) : पृथ्वी संबंधी पार्थिवीधारणा का स्वरुप वर्णन करते हैं। इस मध्यलोक समान गोल एक राजू के विस्तारवाला क्षीर समुद्र का विचार करना। क्षीर समुद्र का किस प्रकार का विचार करना ? शब्द रहित, लहरों रहित (पूर्णशान्त निशब्द ) सफेद पाला या बरफ के समान उज्ज्वल क्षीर समुद्र का विचार करना। उस क्षीर समुद्र के बिच में तपाये हुए स्वर्ण के समान अपरिमित प्रभा का धारक, एक हजार पत्र पांखुड़ी युक्त, पद्मराग मणिमय उदयरुप केशरावलि युक्त एक कमल का विचार करना। कमल किस प्रकार का है ? जम्बूद्वीप समान एक लाख योजन के विस्तार का कामल का विचार करना। उसके बीच में चित्तरुप भौंरे को प्रसन्न करनेवाली, मेरु के समान कर्णिका अपनी कान्ति से दशों दिशाओं को पीला करती हुई शोभायमान है। उस कर्णिका के बीच में शरदऋतु के चन्द्रमा की कांति के समान उज्ज्वल उच्च एक सिंहासन पर आप सुखरुप, रागद्वेषरहित, संसार में उत्पन्न कर्म समूह को नष्ट करने में उद्यमी बैठा हुआ है, ऐसा विचार करना। वहाँ ऐसा विचार करना : एक उज्ज्वल क्षोभरहित. शब्दरहित. मध्य लोक के बराबर विस्तारवाले क्षीर समुद्र के बीच में जम्बूद्वीप के बराबर तपाये हुए स्वर्ण के समान कान्ति का पुंज, पद्मराग मणिमय केशरिया, एक हजार पांखुड़ी का एक कमल है। उस कमल के बीच में मेरु समान महाकान्ति की पुंज कर्णिका है। उस कर्णिका के बीच में शरद के चन्द्रमा के समान कान्ति का पुंज उन्नत एक सिंहासन उसके उपर बीच में क्षोभरहित, राग-द्वेषरहित, कर्म के नाश करने में उद्यमी निश्चल बैठा हुआ अपने आत्मा का विचार करना वह पार्थिवी धारणा है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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