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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार
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यदि धन सहित भी हुआ, किन्तु कान, आँख आदि इन्द्रियों से विकल हुआ तो उसका धन प्राप्त करना व्यर्थ है। इन्द्रियाँ परिपूर्ण होने पर भी रोगरहित शरीर प्राप्त होना दुर्लभ है। रोगरहित होने पर भी दीर्घ आयु का प्राप्त होना दुर्लभ है। दीर्घ आयु प्राप्त होने पर भी शीलरुप अर्थात् सम्यक् मन-वचन-काय का न्यायरुप प्रवर्तन दुर्लभ है। न्यायरुप प्रवर्तन होने भर भी सत्पुरुषों की संगति प्राप्त होना दुर्लभ है। ___ सत्संगति मिलने पर भी सम्यग्दर्शन प्राप्त होना दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर भी सम्यक् चारित्र प्राप्त होना दुर्लभ है। सम्यक् चारित्र प्राप्त होने पर भी आयु की पूर्णता तक इसका निर्वाह करते हुए समाधिमरण तक निर्वाह होना दुर्लभ है। रत्नत्रय प्राप्त करके भी यदि तीव्र कषायादि को प्राप्त हो जाय तो संसार समुद्र में ही नष्ट हो जाता है तथा समुद्र में गिरे रत्न के समान फिर रत्नत्रय का प्राप्त करना दुर्लभ हो जाता है।
रत्नत्रय की प्राप्ति मनुष्यगति में ही हो सकती है। मनुष्यगति में ही व्रत, तप, संयम से निर्वाण की प्राप्ति होती है। ऐसा दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी जो विषयों में रमण करते हैं वे भस्म के लिये दिव्यरत्न को जला देते हैं। इस प्रकार बोधिदुर्लभ भावना का वर्णन किया ।११।
धर्म भावना (१२): अब धर्म भावना का स्वरुप संक्षेप में कहते हैं। धर्म का स्वरुप दशलक्षण भावना में कहा ही है। धर्म तो आत्मा का स्वभाव है। वह धर्म भगवान सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्रकाशित दशलक्षण, रत्नत्रय तथा जीवदयारुप है। उसका वर्णन यथा अवसर संक्षेप में इस ग्रन्थ में लिखा ही है। इस संसार में धर्म के जानने की साम्रगी ही अतिदुर्लभ है।
धर्मश्रवण करना दुर्लभ है, धर्मात्मा की संगति दुर्लभ है। धर्म में श्रद्धा, ज्ञान, आचरण, किसी विरले पुरुष का मोह की मंदता से, कर्मों की उपशमता से होता है।
यदि यह संसारी जीव जिस प्रकार इन्द्रियों के विषयों में; स्त्री, पुत्र, धनादि में प्रीति करता है उस प्रकार एक जन्म में भी धर्म से प्रीति करे तो संसार के दुःखों का अभाव हो जाये। यह संसारी अपने लिये निरन्तर सुख को चाहता है, किन्तु सुख का कारण जो धर्म है उसमें आदर नहीं करता है, उसे सुख कैसे प्राप्त होगा? बीज बिना बोये धान्य की प्राप्ति कैसे होगी? इस संसार में भी जो इन्द्रपना, अहमिन्द्रपना, तीर्थकरपना, चक्रवर्तीपना, बलभद्रपना, नारायणपना होता है वह धर्म के प्रभाव से ही होता है।
यहाँ भी उत्तम कुल, रुप, बल, ऐश्वर्य, राज्य, सम्पदा, आज्ञा, सपूत पुत्र, सौभाग्यवती स्त्री, हितकारी मित्र, वांछित कार्य साधनेवाला सेवक, निरोगता, उत्तम भोग-उपभोग , रहने का देव विमान समान महल, सुन्दर संगति में प्रवृत्ति, क्षमा, विनय, मंदकषायपना, पण्डितपना, कविपना, चतुरता, हस्तकला, पूज्यपना, लोकमान्यता, विख्यातता, दातारपना, भोगीपना, उदारपना, शूरपना इत्यादि उत्तमगुण, उत्तमसंगति, उत्तम बुद्धि, उत्तमप्रवृत्ति जो कुछ देखने-सुनने में आती है, वह सब धर्म का ही प्रभाव है।
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