________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४०४]
का भी रोग अधिकता से शरीर का बल घट जाने से थोड़ा समय ही बाकी रहा दिखाई देता है, इसलिये ग्रन्थ संग्रह किया है तो उसकी पूर्णतारुप फल की आवश्यकता है। अतः इन छह द्रव्यों का विस्तार से वर्णन अन्य ग्रन्थों से जान लेना।१०।।
बोधि दुर्लभ भावना (११): अब बोधि दुर्लभ भावना का स्वरुप संक्षेप में कहते हैं। यह जीव अनादिकाल से निगोद में रहा है। एक निगोद के शरीर में अतीतकाल में हुए सिद्धों से अनन्तगुणे जीव हैं, सभी अपने-अपने कार्माण शरीर सहित एक निगोद के शरीर की अवगाहना में रहते हैं। इस प्रकार के वादर-सूक्ष्म निगोदिया जीवों के शरीरों से सम्पूर्ण लोक ऊपर-नीचे भीतर-बाहर अन्तर-रहित ( ठसाठस) भरा है। पृथ्वीकाय आदि अन्य पाँच स्थावरों से भी यह लोक निरन्तर भरा है। इसमें त्रसपना प्राप्त करना बालू के समुद्र में गिरी हीरा की कणिका के प्राप्त करने के समान दुर्लभ हे।
यदि कदाचित् त्रसपना भी प्राप्त हो जाये तो बसों में विकलेन्द्रियों की प्रचुरता है; उनमें पंचेन्द्रियपना असंख्यातकाल तक परिभ्रमण करते हुए भी प्राप्त नहीं होता है। फिर विकलत्रय में मरकर निगोद में अनंतकाल बीतता है। फिर पाँच स्थावरों में असंख्यातकाल बीतता है, फिर निगोद में चला जाता है। इस प्रकार परिभ्रमण करते हुए अनंत परिवर्तन पूर्ण हो जाते हैं, किन्तु पंचेन्द्रियपना प्राप्त होना दुर्लभ है। पंचेन्द्रियों में भी मनसहित होना और दुर्लभ है। असंज्ञी रहते हुए हित-अहित के ज्ञान रहित ,शिक्षा-क्रिया-उपदेश-आलाप आदि रहित, अज्ञानभाव से नरक निगोद आदि तिर्यंचगति में दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है। ___कभी मन सहित भी होता है तो क्रूर तिर्यंचों मे रौद्र परिणामी, तीव्र अशुभ लेश्या का धारक घोर नरक में असंख्यातकाल तक अनेक प्रकार के दुःख भोगता है। असंख्यातकाल नरक के दुःख भोगकर फिर पापी तिर्यंच होता है; फिर नरक में तथा तिर्यंचों में अनेक प्रकार के घोर दुःख भोगता हुआ असंख्यात पर्यायें तिर्यंच की व नरक की भोगता हुआ फिर स्थावरों में परिभ्रमण करता हुआ अनन्त जन्म, मरण, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्णता, मारन, ताड़न सहता हुआ अनन्तकाल व्यतीत करता है। __जैसे कभी चौराहे पर रत्नराशि मिल जाती है, उसी प्रकार दुर्लभ मनुष्यपना प्राप्त करके भी यदि म्लेच्छ मनुष्य हुआ तो वहाँ भी घोर पाप संचय करके, नरकादि चतुर्गति में परिभ्रमण करनेवाले को फिर मनुष्य जन्म पाना अति ही दुर्लभ है। वहाँ भी आर्यखण्ड में जन्म लेना अति-दुर्लभ है। आर्यखण्ड में भी उत्तम जाति, उत्तम कुल प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। भील, चांडाल , कोली, चमार, कलार, धोबी, नाई , खाती, लुहार इत्यादि नीच कुल बहुत हैं, उच्च कुल प्राप्त होना दुर्लभ है।
यदि कभी उच्चकुल भी पाया, किन्तु धन रहित हुआ तो तिर्यंचों के समान भार ढोना, नीचकुल के धारकों की सेवा करने में तत्पर रहना, आठों प्रहर अधर्म कर्म करके पराधीन वृत्ति द्वारा पेट भरना किया, उसका उच्चकुल पाना वृथा है।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com