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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४०३ निर्जरा भावना (९) : अब निर्जरा भावना के स्वरुप का वर्णन करते हैं। जो ज्ञानी वीतरागी होकर मद रहित-निदान रहित होकर बारह प्रकार का तप करता है उसके बहुत निर्जरा होती है। समस्त कर्मों का उदयरुप रस को प्रकट करके झड़ जाना वह निर्जरा है। निर्जरा के दो भेद हैं – सविपाक निर्जरा, अविपाक निर्जरा। अपने उदय काल में कर्मों का रस देकर झड़ जाना वह सविपाक निर्जरा है। चारों गतियों में जो कर्म अपना रसरुप फल देकर निर्जरित हो जाता है वह सविपाक निर्जरा है। व्रत, संयम, तप धारण करके उदयकाल के आये बिना ही कर्मों का निर्जरित हो जाना वह क निर्जरा है। मंद कषाय के भाव सहित जैसे-जैसे तप बढ़ता है वैसे-वैसे निर्जरा की वृद्धि होती है। जो पुरुष कषाय वैरी को जीतकर दुष्टजनों के दुर्वचन, उपद्रव, उपसर्ग, अनादर आदि को कलुषितभाव रहित होकर सहता है उसके महानिर्जरा होती है। दुष्टों द्वारा उपद्रव किये जाने पर, कर्मकृत परीषह, दारिद्र, रोग, दुष्टों का समागम आदि होने पर इस प्रकार विचार करता है - मैंने पूर्वकाल में जो पाप बांधा था ये उस फल है, अब समभावों से भोगो। कर्मरूप ऋण छूटेगा नहीं, विषाद करोगे तो कर्म छोड़ेगा नहीं; संक्लेश परिणाम करने से तो संख्यात-असंख्यातगुणा नवीन कर्म और बांधोगे। जो उत्तम पुरुष शरीर को केवल ममत्व को उत्पन्न करनेवाला, विनाशीक , अशुचि, दुःख देनेवाला जानते हैं; सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को सुख उत्पन्न करनेवाला , निर्मल, नित्य, अविनाशी जानते हैं; अपनी निन्दा करते हैं; गुणवन्तों का बड़ा सत्कार कर उन्हें उच्च मानते हैं; मन और इन्द्रियों को जीतकर अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होते हैं, उनका मनुष्य जन्म प्राप्त करना सफल होता है; पाप कर्मों की बहुत निर्जरा होती है, संसार को छेदनेवाला सातिशय पुण्य का बन्ध होता है, तथा उन्हीं को परम अतीन्द्रिय, अविनाशी, अनन्त सुख होता है। ___ जो समभावरुप सुख में लीन होकर बारम्बार अपने स्वरुप की उज्ज्वलता का स्मरण करता है, इन्द्रियों तथा कषायों को महादुःखरुप जानकर जीतता है उस पुरुष के बहुत निर्जरा होती है। इस प्रकार निर्जरा भावना का वर्णन किया ।। लोक भावना (१०) : अब लोक भावना के स्वरुप का वर्णन करते हैं। सर्व तरफ अनन्तानन्त आकाश है, उसके बिलकुल बीच में लोक है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, कालइनका समुदाय जितने आकाश में रह रहा है, दिखाई देता है, वह लोक है। वह तीन सौ तेतालीस धन राजू प्रमाण क्षेत्र है। उसके बाहर अनन्तानन्त आकाश है, उसको अलोक कहते हैं। इस लोक में अनन्तानन्त जीव हैं, जीवों से अनन्तगुने पुद्गल हैं, एक धर्म नाम का द्रव्य है, एक अधर्म नाम का द्रव्य है, एक आकाश द्रव्य है, काल द्रव्य असंख्यात हैं। यदि इन द्रव्यों का स्वरुप, लोक का संस्थान आदि का स्वरुप, अवगाहन आदि का वर्णन किया जाय तो वर्णन बहुत हो जायेगा। ग्रन्थ का विस्तार थोड़ा-थोड़ा करते हुए भी बहुत होता जा रहा है; तथा अब मेरी आयु Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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