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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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तृष्णा बढ़ाती है। कर्ण इन्द्रिय अनेक मधुर रागों में खुश होकर आपा भुलाकर पराधीन कर देती है। मन चंचल बंदर के समान स्वच्छंद अनेक विकल्पों द्वारा शुभध्यान- शुभप्रवृत्ति में भी नहीं रुकता है, विषय-कषायों में ही घूमता है। असत्य वाणी मुख में से अतिप्रेम पूर्वक निकलकर अपनी चतुरता प्रकट करती है। हाथ तो हिंसा का आरम्भ करने के मुख्य उपकरण हैं। पैर भी पाप करने के मार्ग में बहुत तेजी से दौड़ते हैं।
कविपना बहुत राग बढ़ानेवाली रचना चाहता है। पण्डितपना कुतर्क और असत्य प्रलापीपने द्वारा अपनी विख्यातता चाहता है। सुभटपना घोर हिंसा चाहता है। बाल्यपना अज्ञानरुप है। यौवन वांछित विषयों के लिये विषम स्थानों में भी दौड़ता है। वृद्धपना विकराल काल के निकट रहता है। ऊश्वास-निश्वास निरन्तर शरीर से निकलकर भाग जाने का अभ्यास कर रहे हैं। जरा काम, भोग, तेज, रुप, सौंदर्य, उद्यम, बल, बुद्धि आदि का हरण करनेवाला तस्कर है। रोग यमराज के प्रबल सुभट दूत हैं। इस प्रकार की सामग्री इस आत्मा को अपना स्वरुप भुलानेवाली है, उससे बहुत अशुभ कर्मों का आस्त्रव होता है। इस प्रकार आस्त्रव भावना का वर्णन किया ७।
संवर भावना (८) : अब संवर भावना के स्वरुप का वर्णन करते हैं। जैसे समुद्र के बीच में नाव में जल आने का छिद्र बंद कर दें तो नाव में जल नहीं भर पाये और नाव नहीं डूबेगी; उसी प्रकार जो कर्मों के आने के द्वार बंद कर देता है उसके परम सम्यग्दर्शन से तो मिथ्यात्व नाम के आस्त्रव का द्वार रुक जाता है। इंन्द्रियों तथा मन को संयमरुप प्रवर्तन कराने से इंद्रियों से होनेवाला आस्त्रव रुककर संवर हो जाता है। छह काय के जीवों का घात करनेवाला आरम्भ त्याग देने से प्राणीसंयम होने से अविरति द्वारा होनेवाला आस्त्रव रुक जाने से संवर होता है।
कषायों को जीतकर दशलक्षणरुप धर्म को धारण करने से , चारित्र प्रकट होने से, कषायों के अभाव से संवर होता है। ध्यानादि तप से, स्वाध्याय तप से, योगों के द्वारा आनेवाले कर्मों के रुकने से संवर होता है। तीन गुप्ति, पाँच समिति, दशलक्षण धर्म, बारह भावना, बाईस परीषहों को सहना, पाँच प्रकार का चारित्र पालना, इनसे नये कर्म नहीं आते हैं। ___मन, वचन, काय के योगों को रोकना गुप्ति है। प्रमाद छोड़कर यत्न से प्रवर्तना समिति है। जिसमें दया प्रधान होती है वह धर्म है। स्वतत्व का चिंतवन करना भावना है। कर्म के उदय से आये हुए क्षुधा-तृषादि परीषहों का कायरता रहित समभावों से सहना परीषह जय है। रागादि दोष रहित अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा में प्रवृत्ति करना वह चारित्र है।
इस प्रकार जो विषयों से पराङ्मुख होकर सर्वक्षेत्र सर्वकाल में प्रवर्तता है, उसके गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय, चारित्र-इनसे नये कर्मों का आना रुक जाता है, नये कर्म आते नहीं हैं, वही संवर है। जो इन संवर के कारणों का चिन्तवन करता है उसके नया-नया आस्त्रव बंध नहीं होता है। इस प्रकार संवर भावना का वर्णन किया।८।
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