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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४०१ सत्य, हित, मित, मधुर वचनों द्वारा, परमागम के अनुकूल वचनों द्वारा, परमेष्ठी के स्तवन से, सिद्धान्तों को वांचने से तथा व्याख्यान कर न्यायरुप वचनों द्वारा पुण्य का आस्त्रव होता है। पर की निन्दा, अपनी प्रशंसा, अन्याय का प्रवर्तन करानेवाले वचन, हिंसा का आरंभ कराने वाले, विषयानुराग बढ़ानेवाले, कषायरुप अग्नि को प्रज्वलित करनेवाले, कलह विसंवाद शोक भय बढानेवाले. धर्म विरुद्ध. मिथ्यात्व-असंयम को पष्ट करनेवाले. अन्य जीवों को दःख-अपमानधन-आजीविका की हानि करनेवाले वचनों से पाप का आस्त्रव होता है। परमेष्ठी की पूजन, प्रणाम, जिनायतन की सेवा, धर्मात्मा पुरुषों की वैयावृत्य, यत्नाचार पूर्वक जीवों पर दयारुप होकर सोना, बैठना, पलटना, रखना, धरना, सौंपना, खाना, पीना, बिछाना, चलना, हिलना इत्यादि काय का योग शुभ आस्त्रव का कारण है। यत्नाचार रहित-करुणारहित स्वच्छन्द देह का प्रवर्तना, महा आरम्भ में प्रवर्तना, देह को सजाने-संवारने में ही लगे रहना – इन सब कार्यों के द्वारा अशुभ आस्त्रव होता है। यह मन, वचन, काय की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति तीव्र-मन्द कषाय के योग से तीव्र मन्द अनेक प्रकार के कर्मो के बन्ध का निमित्त होती है। इनका विचार करने पर आत्मा अशुभ प्रवृत्ति से रुककर शुभ प्रवृत्ति में सावधान होकर प्रवर्तन करता है। ___ कषायें आत्मा के सभी गुणों का घात करनेवाली हैं। क्रोध दूसरे जीवों को मारने में घात करने में, बंधनादि करने में चित्त को दौड़ाता है। मान इस जीव को अभिमान से ऐसा उद्धत कर देता है कि वह पिता, गुरु, स्वामी का भी तिरस्कार करना चाहता है, विनय को नष्ट कर देता है। माया कषाय अनेक छल, अनेक धूर्तता, पर को भुला देना इत्यादि अनेक कपट ही के विचार कराती है, परिणामों की सरलता का अभाव कर देती है। लोभ कषाय सुख का कारण जो सन्तोष है, उसका नाश कर देती है, योग्य-अयोग्य के विचार का नाश कर देती है। काम मर्यादा को भंग कर देता है, लज्जा को भंग कर देता है, हित-अहित का नीचकर्म-उच्चकर्म के विचार रहित कर देता है। मोह मदिरा के समान स्वरुप को भुला देता है। शोक अत्यन्त दुःख पूर्वक हाहाकार कराता है। रुदन आत्मघात आदि में प्रवृत्ति कराता है। हास्य दूसरों की हँसी कराता है, अज्ञानता प्रकट करना चाहता है। स्नेह मद्य पिये बिना ही अचेत कर देता है, महा बंधनरुप है, आत्मा को हितरुप प्रवत्ति से रोकनेवाला है. अनर्थ का स्थान है। निद्रा आत्मा के चैतन्य का घात करके जड़ जैसा कर देती है। तृषा नहीं पीने योग्य जल को भी पिलाना चाहती है। क्षुधा चाण्डाल के भी घर में प्रवेश कराके याचना करवाती है, कुल मर्यादा को नष्ट करके घोर कष्ट देती है। नेत्र सुन्दररुपादि देखने को उत्सुकता दिखाते हैं। जिह्वा इंद्रिय मीठे भोजन करने को अति-चंचल होकर लज्जा, उच्चपना, संयमादि नष्ट करके नीच प्रवृत्ति कराती है। घ्राण इन्द्रिय सुगंधित पदार्थों पर अचेत होकर टूट पड़ती है। स्पर्शन इन्द्रिय स्त्रियों के कोमल अंगों, नर्म शय्या आदि की Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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