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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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लौकिक शौच आठ प्रकार की है - कोई कालशौच जो प्रामाणिक काल बीत जाने पर लोक में शुचि मानते हैं; कोई अग्नि संस्कार- अग्नि में तपाने से शुचिता मानते हैं; कोई को पवन से, कोई भस्म से मांजने से, कोई मिट्टी से, कोई जल से, कोई गोबर से लीपने से, कोई ज्ञान से ग्लानि मिट जाने से, लौकिकजन मन में शुचिपना मान लेते हैं; परन्तु शरीर को पवित्र करने में कोई समर्थ नहीं है, शरीर के संसर्ग से तो जल, भस्म आदि ही अशुचि हो जाते हैं।
यह शरीर आदि में, मध्य में, अन्त में, कहीं भी शुचि नहीं है। इसका उपादान कारण रुधिरवीर्य वह शुचि नहीं; यह शरीर स्वयं शुचि नहीं; इसके भीतर दुर्गन्धित मल-मूत्रादि, बाहर चाम-हाड़-रुधिर आदि कोई शुचि नहीं है। इसे समस्त तीर्थों के, समस्त समुद्रों के जल से धोईये तो भी यह समस्त जल को ही अशुचिरुप कर देता है, यह शुद्ध नहीं होता है।
यह शरीर सर्वकाल रोगों से भरा है, सर्वकाल अशुचि है, सर्वथा विनाशीक है; दुःख उत्पन्न करनेवाला है। इसकी शुचिता का उपाय तथा अशुचिता का प्रतिकार , धूप, गंध, विलेपन, पुष्प, स्नान, जल, चंदन, कपूर आदि कोई नहीं है। जैसे अंगारे का स्पर्श करने से अन्य पदार्थ भी अंगारा बन जाता है, वैसे ही शरीर के स्पर्श करने मात्र से पवित्र वस्तुएँ भी अपवित्र हो जाती हैं।
इस प्रकार शरीर की अशुचिता का चिन्तवन करने से, शरीर के संवारने में रुपादि में अनुराग का अभाव होने से वीतरागता में यत्न होने लगता है। इस प्रकार अशुचिभावना का वर्णन किया ।६।
आस्त्रव भावना (७) अब आस्त्रव भावना के स्वरुप का वर्णन करते हैं। कर्मों के आने के जो कारण हैं वे आस्त्रव हैं। जैसे समुद्र के बीच जहाज में छिद्रों से जल प्रवेश करता है, उसी प्रकार पांच मिथ्यात्व भाव, पांच इंन्द्रियां तथा छठे मन के विषयों में प्रवर्तन करने के भाव, छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग नहीं करने के भाव , अनन्तानुबंधी से लेकर पच्चीस कषायों के भाव तथा मन वचन काय के भेद से पंद्रह प्रकार का योग-इस प्रकार कर्मों के आने के ये सत्तावन द्वार हैं।
इनमें से मिथ्यात्व, कषाय, अविरति आदि के अनुसार मन-वचन-काय से शुभ-अशुभ कर्मों का आस्त्रव होता है। वहाँ पुण्य-पाप के संयोग से मिले विषयों में संतोष करना, विषयों से विरक्त होना, परोपकार के परिणाम, दुःखियों की दया, तत्वों का चिन्तवन, सभी जीवों में मैत्रीभाव इत्यादि भावना, परमेष्ठी में भक्ति, धर्मात्मा में अनुराग, तप-व्रत-शीलसंयम के परिणाम इत्यादि रुप मन की प्रवृत्ति से पुण्य का शुभ आस्त्रव होता है।
परिग्रह में अभिलाषा, इन्द्रियों के विषयों में अति लोलुपता, पर का धन हरने के परिणाम , अन्यायरुप प्रवर्तन में, अभक्ष्य-भक्षण में, सप्त व्यसन के सेवन में, पर का अपवाद होने में अनुराग रखना, पर के स्त्री पुत्र धन आजीविका का नाश चाहना, पर का अपमान चाहना, अपनी उच्चता चाहना इत्यादि मन के भावों द्वारा पाप का अशुभ आस्त्रव होता है।
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