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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[३९९ जगत में कपूर, चन्दन, पुष्प, तीर्थो के जलादि जिस शरीर के स्पर्श मात्र से मलिनदुर्गन्धित हो जाते हैं वह शरीर कैसे पवित्र हो सकता है ? जगत में जितनी अपवित्र वस्तुएँ हैं वे देह के एक-एक अवयव के स्पर्श से अपवित्र होती हैं। मल के, मूत्र के, हाड़ के, चाम के, रस के,रुधिर के ,मांस के ,वीर्य के,नसों के ,केश के,कफ के नख के,लार के,नाकमल के, दन्तमल के ,नेत्रमल के,कर्णमल के स्पर्श मात्र से अपवित्र हो जाती हैं। दो इन्द्रिय आदि प्राणियों की देह के सिवाय कोई अपवित्र वस्तु ही लोक में नहीं है। देह के संबंध बिना लोक में अपवित्रता कहाँ से होगी?
देह को पवित्र करने के लिये तीनलोक में कोई पदार्थ नहीं है। जलादि से तो करोड़ोंबार धोने पर भी जल ही अपवित्र हो जाता है, देह पवित्र नहीं होती है। जैसे कोयले को ज्योंज्यों धोवों त्यों-त्यों उसमें से कालिमा ही निकलती है, उज्ज्वल नहीं होता है, उसी प्रकार देह का स्वभाव जानो। देह को पवित्र मानना मिथ्यादर्शन है। यह देह तो एक रत्नत्रय, उत्तमक्षमादि धर्म को धारण करने पर आत्मा के संबंध से देवों द्वारा वंदने योग्य पवित्र हो जाता है।
धनादि परिग्रह, पाँच इन्द्रियों के विषय, मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ ये अमूर्तिक आत्मा के स्वभाव (पर्याय) को महामलिन करते हैं, अधम करते हैं, निंद्य करते हैं, दुर्गति को प्राप्त कराते हैं। इसलिये काम, क्रोध, रागादि छोड़कर आत्मा को पवित्र करो, देह पवित्र नहीं होगा।
इस प्रकार देह का स्वरुप जानकर देह से राग छोड़कर जो आत्मा से अनादि से संबंधरुप हैं (लग रहे हैं) उन रागादि कर्म मलों को ( दोषों को) दूर करने का प्रयत्न करो।
धन संपदादि परिग्रह, पाँच इन्द्रियों के भोग , देह में स्नेह - ये आत्मा को मलिन करनेवाले हैं, इसलिये इनका अभाव करने में उद्यम करो। धन तो आत्मा में काम, क्रोध, लोभ, मद, कपट , ममता, बैर, कलह, महान आरम्भ , मूर्छा, ईर्ष्या, अतृप्ति आदि हजारों दोष उत्पन्न करनेवाला है। इस लोक संबंधी समस्त दोष अतिचिन्ता, दुर्ध्यान, महाभय उत्पन्न करनेवाला एक धन का निर्णय करके विचार करो।
__पाचँ इन्द्रियों के विषय आत्मा को अपना स्वरुप भुलाकर महानिंद्य कार्य कराते हैं। जो निंद्य कार्य जगत में नहीं करने योग्य हैं उनको इन्द्रियों के विषयों की इच्छा कराती है। देह में स्नेह करना तो मांस, मज्जा , हाड़मय, महादुर्गन्धित, सड़े हुए कलोवर से राग करना है। जो महामलिन भाव का कारण है। ऐसे शरीर की शुचिता करनेवाला दशलक्षण धर्म ही है।
शुचिपना दो प्रकार का है - एक लोकोत्तर दूसरा लौकिक। कर्म को धोकर शुद्ध आत्म स्वरुप में स्थिर होना वह लोकोत्तर शौच है, इसका कारण रत्नत्रयभाव है। रत्नत्रय के धारक परम साम्यभाव से रहनेवाले साधु भी लोकोत्तर शुचिता के कारण हैं, जिनका समागम करके शुद्धात्मा को प्राप्त करना चाहिये।
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