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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [४०७ आग्नेयी धारणा (२): पार्थिवी धारणा का जब दृढ़ अभ्यास हो जाये तब उस स्फटिकमणिमय सिंहासन में बैठे हुए अपने नाभिमण्डल में मनोहर सोलह उन्नत पत्तेवाला एक कमल का विचार करना। उस कमल के एक-एक पत्ते के ऊपर बैठी सोलह स्वरों की पंक्ति- अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः इस क्रम से स्थापित कर विचार करना। उस कमल की कर्णिका में बैठा एक शून्य अक्षर रेफ बिन्दु अर्धचन्द्राकार कला युक्त, बिन्दु में से कोटि कांतियुक्त दश दिशाओं को व्याप्त करता हुआ है। ऐसे मन्त्र का विचार करना। फिर उस मन्त्र के रेफ से मंदमंद निकलता हुआ धूम विचार करना। पश्चात् अग्नि के स्फुलिंग की पंक्ति का विचार करना। उसके बाद महामन्त्र के ध्यान से उत्पन्न अग्नि की ज्वाला का समूह ऊँचा उठता हुआ जानकर अपने हृदय स्थान में बैठा अधोमुख आठ कर्ममय आठ पंखुड़ियों के कमल को जला दे। उसके बाद बाहर आकर त्रिकोण अग्नि मण्डल अग्नि के बीजाक्षर रकार (र) सहित स्वस्तिक चिह्नसहित ज्वाला के समूह से - अग्नि से शरीर को जला दे। उसके बाद निर्धूम अग्नि स्वर्ण समान प्रभा की धारक धगधगाती हुई - भीतर तो मन्त्र की अग्नि से कर्मों को जला दिया तथा बाहर शरीर को अग्निमय करके जला दिया, फिर जलाने योग्य कुछ नहीं रहा, तब अग्नि धीरेधीरे स्वयमेव शान्त होकर शीतल हो जाती है। यहाँ तक यह अग्निधारणा का वर्णन किया। ___पवन धारणा (३) : अब पवन धारणा का वर्णन करते हैं। कैसा है पवन ? महावेग युक्त तथा महाबलवान, देवों के समूह को भी चलायमान करता हुआ, मेरु को कंपायमान करता हुआ, मेघों के समूह को विदीरता हुआ, महासमुद्र को क्षोभरुप करता हुआ, बड़े भवनों के भीतर से गमन करता हुआ दिशाओं के मुख में चलता हुआ, जगत के बीच फैलता हुआ, पृथ्वीतल में प्रवेश करता हुआ-ऐसा पवन सम्पूर्ण आकाशभर में विचरण करता हुआ स्मरण करना। उस प्रबल पवन से वह जली हई कर्म रज और शरीर की रज उड जाती है तथा धीरे-धीरे पवन शान्त हो जाता है। इस प्रकार पवन धारणा का वर्णन किया। वारुणी धारणा (४) : वारुणी धारणा में मेघ के समूह से व्याप्त आकाश का विचार करना। कैसा है मेघ ? इन्द्र धनुष और बिजली की चमक व महागर्जना सहित स्मरण करना। अमृत से उत्पन्न सघन मोती के समान उज्ज्वल मोटी धार से निरन्तर बरसता हुआ स्मरण करना। उसके बाद वरुण बीजाक्षर से चिह्नित तथा अमतमय जल से भरे हए आकाश में व्याप्त होते अर्द्धचन्द्र के आकार के वरुणापुर का विचार करना। उस अचिन्त्य प्रभावरुप दिव्य ध्वनिरुप जल के द्वारा, शरीर व कर्मों को जलाने से उत्पन्न हुई, पवन के उड़ाने से शेष रही, समस्त रज को प्रक्षालित करता हुआ स्मरण करना। इस प्रकार वारुणी धारणा का वर्णन किया। तत्त्वरुपवती धारणा (५) : उसके पश्चात् सिंहासन के ऊपर बैठा हुआ, दिव्य, अतिशयों से युक्त, कल्याणकों की महिमायुक्त, चार प्रकार के देवों से पूजित, समस्त कर्म रहित, अत्यन्त निर्मल , प्रकट, पुरुषाकार अपने शरीर के भीतर सप्तधातु रहित, पूर्ण चन्द्रमा के समान कान्ति का पुंज, सर्वज्ञ समान अपने आत्मा का स्मरण-विचार करना। यह तत्त्वरुपवती धारणा का वर्णन किया। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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