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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार गर्भ में बसने का दुःख, योनि संकट का दुःख, रोग सहित शरीर का दुःख, दारिद्र का घोर दुःख वियोग का महादुःख, क्षुधा-तृषादि वेदना का दुःख, अनिष्ट दुष्टों के संयोग का दुःख यह जीव अकेला ही भोगता है।
स्वर्गो के असंख्यातकाल तक महान सुख , अप्सराओं का साथ, असंख्यात देवों का स्वामीपना, हजारों ऋद्धि आदि की सामर्थ्य पुण्य के उदय से जीव अकेला ही भोगता है।
पाप के उदय से नरक में ताड़न, मारण, छेदन, शूली आरोहण, कुम्भीपाचन, वैतरणी मजुन आदि क्षेत्र जनित, शरीर जनित, तथा परस्परकृत घोर अकेला ही भोगता है।
तिर्यचों का पराधीन बन्धना, बोझा लादना, कुवचन सुनना, मरम स्थानों में अनेक प्रकार से घात सहना; दीर्घकाल तक बहुत भार लेकर बहुत दूर तक चलना; क्षुधा-तृषा सहना; रोगों की अनेक वेदना भोगना; शीत, उष्ण, पवन, तावड़ा, वर्षा, गड़ा इत्यादि की घोर वेदना भोगना; नासिका आदि में रस्सी डालकर दृढ़ बाँधना, घसीटना, सवारी करना, समस्त दुःख पाप के उदय से जीव अकेला ही भोगता है। कोई मित्र-पुत्रादि सहायक साथ में नहीं रहते हैं, एक धर्म ही सहायक है।
इस प्रकार एकत्व भावना भाने से स्वजनों में प्रीति नहीं बढ़ती है, अन्य परिजनों में द्वेष का अभाव होता है; तब अपने आत्मा की शुद्धता में ही प्रयत्न करता है। इस प्रकार एकत्व भावना का वर्णन किया (४) ।
अन्यत्व भावना (५) अब अन्यत्व भावना का स्वरुप चिन्तवन करने योग्य है। हे आत्मन्! इस संसार में जो स्त्री, पुत्र, धन, शरीर, राज्य, भोग आदि का तुमसे संबंध है वे सब तुम्हारे स्वरुप से अन्य हैं, भिन्न हैं, तुम किस के सोच-विचार में लग रहे हो ? अनन्तानन्त जीवों का तथा अनन्त पुद्गलों का संबध तुमसे अनन्तबार होकर छूट चुका है। अज्ञानी संसारी अपने से अन्य जो स्त्री, पुत्र, मित्र, शत्रु, धन कुटुम्ब आदि का संयोग, वियोग, सुख-दुःख आदि है उनका चिन्तवन करके समय व्यतीत करता है; किन्तु अपने नजदीक आया मरण व नरक-तिर्यंच आदि गति में जाना, उसका चिन्तवन विचार नहीं करता है। ____ समय-समय यह मनुष्यआयु चली जा रही है; यदि इसमें ही अपना हित नहीं किया, पाप से पराङ्मुख नहीं हुआ, कुगति के कारण राग, द्वेष, मोह, क्रोध, लोभादि महाबली से आत्मा को नहीं छुड़ाया तो तिर्यंचगति-नरकगति में अज्ञानी, पराधीन, अशक्त रहता हुआ क्या करूँगा ? ___ इस पंच परिवर्तनरुप संसार में अनन्तानन्त काल से परिभ्रमण करते हुए जीव का अपना कोई स्वजन नहीं है। ये स्वामी, सेवक , पुत्र, मित्र, बांधवों को जो अपना मानते हो, वह मिथ्या मोह की महिमा है, इसी को मिथ्यात्व कहते हैं। ये तो सभी संबंध कर्मजनित अल्पकाल के हैं, अचानक वियोग हो जायगा। ये सभी संबंध विषय-कषाय पुष्ट करने को तथा अपना स्वरुप भुलाने के लिये हैं।
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