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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार
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संसार में सभी जीवों से अपना शत्रुमित्रपना अनेकबार हुआ है; आगे भी इन परद्रव्यों में आत्मबुद्धि करके अनन्तकाल तक भ्रमण करोगे। इन परद्रव्यों के संबंध में राग-द्वेष बुद्धि करके शत्रु-मित्र बुद्धि ही से एक इंद्रियपना तथा ज्ञान पहिचान के विचार रहित अज्ञानी होकर अनन्तकाल तक भ्रमण करोगे। जैसे अनेक देशों से आये भिन्न-भिन्न अनेक पथिक रात्रि में एक स्थान में ठहर जाते हैं अथवा एक वृक्ष पर अनेकदिशाओं से आये अनेक पक्षी रात्रि में आकर बस जाते हैं; प्रातः काल होने पर वे सब अनेक मार्गों से अनेक देशों को चले जाते हैं; उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, मित्र, बंधु आदि अनेक गतियों से पाप-पुण्य बांधकर कलरुप स्थान में आकर शामिल हो जाते हैं; अपनी-अपनी आय पूर्ण हो जाने पर पाप-पुण्य के अनुसार नरक, तिर्यंच , मनुष्य आदि अनेक भेदरुप गतियों को चले जायेंगे।
कोई भी किसी का नहीं है। पुण्य-पाप के अनुसार दो दिन आपका उपकार-अपकार करके संसार में आकर रुलते रहते हैं। इस संसार में सभी जीवों की भिन्न-भिन्न प्रकृति है, किसी का स्वभाव किसी दूसरे से मिलता नहीं है। स्वभाव मिले बिना कैसी प्रीति है ? परस्पर में किसी का अपना-अपना विषय-कषायरूप प्रयोजन सधता दिखाई देता है तो उनमें प्रीति हो जाती है, प्रयोजन बिना प्रीति नहीं होती हैं।
इस समस्त लोक में बालू रेत के कण के समान किसी का किसी से संबंध नहीं है। जैसे बालू के भिन्न-भिन्न कण किसी जल आदि चिकने पदार्थ का साथ हो जाने से मुट्ठी में बंध जाते हैं, चिपक जाते हैं, चैंप दूर होने पर कण-कण भिन्न-भिन्न बिखर जाता है; उसी प्रकार समस्त पुत्र, स्त्री, मित्र, बंधु, स्वामी, सेवकों का संबंध है। जब तक अपना कोई भी विषय. अभिमान लोभादि कषाय सधता दिखाई देता है तभी तक प्रीति जानो। जिनसे अपने इन्द्रियों के विषय नहीं सधते, अभिमान आदि कषाय पुष्ट नहीं होते उनके रुखे परिणामों से प्रीति नहीं होती है।
बिना प्रयोजन भी जगत में कहीं प्रीति देखी जाती है, वह लोक लाज के अभिमान से, आगामी कुछ प्रयोजन की आशा से, तथा पूर्वकाल के उपकार को लोपूँगा तो लोक में मेरा कृतघ्नीपना दिखाई देगा-इस भय से मीठे वचनादिरुप प्रीति करता है।
कषाय-विषयों के संबंध के बिना प्रीति होती ही नहीं है। वही देखते भी हैं –जिससे अपना अभिमान सधता दिखता है, धन का लाभ, विषय-भोगों का लाभ, आदर, बड़ाई अपना पूज्यपना होने का लाभ, व यश के लिये या किसी प्रकार की आपत्ति के भय से प्रीति करता है। विषय-कषायों के चैंप के बिना प्रीति होती ही नहीं है। सभी अन्य है, कोई अपना नहीं है।
माता भी पुत्र का पोषण करती है सो वह भी दुःख में-वृद्धपने में अपना आधार जानकर पोषण करती है। पुत्र भी माता का पोषण करता है सो वह ऐसा विचारकर करता है- यदि मैं माता की सेवा नहीं करूँगा तो जगत में मेरे कृतघ्नीपने का अपवाद होगा तथा पाँच आदमियों में मेरी उच्चता नहीं रहेगी, ऐसे अभिमान से प्रीति करता है।
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