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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३९५ जो इस प्रकार का सत्यार्थ स्वरुप का बारम्बार चिन्तवन, अनुभवन करता है उसे संसार से वैराग्य होता है; जो विरक्त होता है वह संसार परिभ्रमण दूर करने के उद्यम में सावधान होता है। इस प्रकार तीसरी संसार भावना का वर्णन किया।३। एकत्व भावना (४) अब एकत्व के स्वरुप का वर्णन करते हैं, जिसका अपने स्वरुप की प्राप्ति के लिये चिन्तवन करना चाहिये। यह जीव कुटुम्ब, स्त्री, पुत्रादि के लिये तथा अपना शरीर पालने के लिये बहुत आरंभ, बहुत परिग्रह, अन्याय, अभक्ष्य आदि करता है जिसका फल घोर दुःख, नरक आदि पर्यायों में अकेला स्वयं भोगता है। जिस कुटुम्ब के लिये व देह के लिये पाप करता है, सो देह तो अग्नि में भस्म होकर उड़ जायेगी, कुटुम्ब भी कहाँ मिल पायेगा? अपने ही द्वारा बांधे गये कर्मों के उदय से हुए रोग, दुःख, वियोगादि को भोगते हुए जीव के सभी मित्र, कुटुम्ब आदि प्रत्यक्ष देखते हुए भी थोड़ा सा भी दुःख दूर नहीं कर सकते हैं ? तब नरक आदि गति में कौन सहायी होगा ? अकेले ही भोगेगा। आयु का अन्त होने पर अकेला ही मरता है। मरण से बचाने में कोई दूसरा सहायी नहीं है। अशुभ का फल भोगने में कोई अपना सहायी नहीं है। परलोक की ओर गमन करनेवाले आत्मा के स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, देह, परिग्रह आदि सहायी नहीं होते हैं। कर्म अकेले जीव को ही ले जाता है, ले जायगा। इस लोक में जो बंधु-मित्रादि हैं वे परलोक में बंधु-मित्रादि नहीं होंगे। जो धन, शरीर, परिग्रह, राज्य, नगर, महल, आभूषण, सेवक आदि परिकर यहाँ हैं वे परलोक में साथ नहीं जायेंगे। इस देह के संबंधी इस देह का नाश होते ही संबंध छोड़ देंगे; वे अपने कर्मों के आधीन अपना सुख-दुःख स्वयं ही भोगेंगे, जीव अकेला जायेगा। इसलिये संबंधियों में ममता करके परलोक बिगाड़ना महा अनर्थ है। यहाँ जो सम्यक्त्व, व्रत, संयम, दान, भावना, आदि करके धर्म की कमाई की है, वह इस जीव की सहायक होती है। एक धर्म के बिना कोई सहायक नहीं, अकेला ही है। धर्म के प्रसाद से स्वर्गलोक में इन्द्रपना, महर्द्धिक देवपना पाकर तीर्थकर, चक्रवर्ती, मन्डलेश्वरपना, उत्तमरुप, बल. विद्या. संहनन. उत्तम जाति. कल. जगतपज्यपना पाकर निर्वाण प्राप्त होता है। ___ जैसे बंदीगृह में बंधन से बंधे हुये पुरुष को बन्दीगृह से राग नहीं है, वैसे ही सम्यग्ज्ञानी पुरुष को देहरुप बंदीगृह से राग नहीं है; क्योंकि धन-कुटुम्ब आदि का अभिमानी घोर बंधन में पराधीन होकर दुःख भोगता है; ऐसा वह जानता है। अकेला ही अपने स्वरुप को नहीं जानकर; परद्रव्य, देह, परिग्रह आदि को अपना जानकर अनंतकाल से भ्रमण करता रहा है; अकेला ही अन्य गति से आकर जन्म धारण कर लेता है। कर्म के सिवाय अन्य कुछ भी साथ नहीं आया है। पुण्य-पाप कर्म ही राजा, रंक, नीच, ऊँच के गर्भादि योनिस्थान में ले जाकर पैदा कर देता है। अकेला ही आयुपूर्ण होने पर समस्त कुटुम्ब आदि को छोड़कर परलोक को चला जाता है, फिर लौटकर वापिस नहीं आता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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