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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३९४]
जो पुण्यहीन देव हैं वे इंद्रादि महर्द्धिक देवों की सभा में प्रवेश नहीं कर सकते है, उसका बहुत मानसिक दुःख होता है। आयु पूर्ण होने पर देवलोक में अपना पतन देखने पर उनका दुःख वे ही जानते है या उनका दुःख भगवान केवली ही जानते हैं।
इस संसार में स्वर्ग का महर्द्धिक देव मरकर एक इंद्रिय में आकर पैदा हो जाता है। मल-मूत्र से भरे रुधिर-मांस के गर्भ में आकर जन्म लेता है। इस संसार में परिभ्रमण करते हुये पुण्य-पाप के प्रभाव से श्वानादि तिर्यंच तो देवों में उत्पन्न होकर देव बन जाते हैं, तथा देव मरकर ब्राह्मण, चाण्डाल, तिर्यंच बन जाता है। कर्मो के अधीन हुआ जीव चारों गतियों में परिभ्रमण करता है।
संसार में राजा होकर रंक हो जाता है, स्वामी से सेवक हो जाता है, सेवक से स्वामी हो जाता है, पिता हो वही पुत्र हो जाता है, पुत्र हो वह पिता हो जाता है, पिता पुत्र ही माता हो जाते हैं, पत्नी हो वह बहिन, दासी, दास हो जाती है, दासी दास हो वह पिता हो जाये, माता हो जाये, आप ही आपका पुत्र हो जाये, देवता हो जाये, तिर्यंच हो जाये, धनवान से निर्धन और निर्धन से धनवान हो जाता है, रोगी दरिद्री से दिव्य रुपवान हो जाये, दिव्य रुपवान का महाविप देखने योग्य नहीं रहता है। ___शरीर धारण करना भी बड़ा भार है। अन्य भार को ढोता हुआ पुरुष तो किसी स्थान में भार को उतार कर विश्राम कर लेता है, किन्तु देह के भार को ढोनेवाले पुरुष को कहीं पर भी विश्राम प्राप्त नहीं होता है। जहाँ पर औदारिक-वैक्रियिक देह का भार क्षण मात्र को उतारता है, वहीं पर आत्मा इनसे अनंतगुना तैजस-कार्माण शरीर का भार धारण किये रहता है। तैजस-कार्माण शरीर कैसे हैं ? इन्होंने आत्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सुख को दबाकर
नके कारण केवलज्ञान तथा अनन्त सखशक्ति अभाव के समान हो रही है। जैसे वन में अंधा मनुष्य घूमता है, उसी प्रकार मोह से अंधा होकर जीव चारों गतियों में भ्रमण करता है।
संसारी जीव रोग, दारिद्र, वियोग आदि के दु:ख से दुखी होकर धन कमाकर दु:ख दूर करने के लिये मोह से अंधा होकर विपरीत इलाज करता है। सुखी होने को अभक्ष्य-भक्षण करता है, छल लपट करता है, हिंसा करता है, धन के लिये चोरी करता है, मार्ग में लूटता है, परन्तु धन भी पुण्यहीन के हाथ नहीं आता है। सुख तो पाँच पापों के त्याग से होता है। मिथ्यादृष्टि पाँचों पाप करके अपने धन की वृद्धि कुटुम्ब की वृद्धि, सुख की वृद्धि चाहता है। इंद्रियों के विषयों की प्राप्ति होने से सुख जानता है, यही मोह से अंधापना है।
जिन संसारी जीवों को हम यहाँ पर भी दुःखी देखते हैं वे दूसरे जीवों को मारने से, असत्य से, चोरी से, कुशील से, परिग्रह की लालसा से, क्रोध से, अभिमान से, छल से, लोभ से , अन्याय से ही दुःखी दिखते हैं। अन्य कोई दुःखी होने का मार्ग नहीं है। ऐसा प्रत्यक्ष देखते हुए भी पापों में ही लिप्त होता है। यह विपरीत मार्ग ही संसार के अनन्त दु:खों का कारण है। दुःखों से दुःख ही उत्पन्न होता है, जैसे अग्नि से अग्नि ही उत्पन्न होती है।
रखा है। दर
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