SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३९३ की इच्छानुसार चलनेवाली स्त्री मर जाती है तो उसके वियोग से महादुःखी होता है। किसी की वृद्ध अवस्था में निर्धनता में स्त्री का मरण हो जाये तब छोटे बच्चे माता के वियोग से निरीह रह जाते हैं. उन्हें देखकर दःखी होता है। कितने ही वृद्ध अवस्था में अपने विवाह की इच्छा करते हैं किन्तु विवाह होता नहीं है जिससे दुःखी रहते हैं। कोई पुत्र रहित हो तो वह दुःखी है, कोई कपूत पुत्रों से दुःखी है, किसी के यशवान सुपुत्र का मरण हो जाये तो वह उसके वियोग से दुःखी होता है। किसी को बैरी के समान मारनेवाले कुवचन बोलनेवाले भाई के समागम के समान दुःख नहीं है। कोई महारोग व निर्धनता के दुःख से दु:खी होते हैं; किसी के पुत्रियाँ बहुत हों उनके विवाह आदि के लिये आवश्यक धन नहीं होने से दुःखी रहते हैं; किसी की पुत्री विवाह के योग्य हो गई है, किन्तु वर का संयोग नहीं मिलता तो बहुत दुःखी होते हैं। किसी की कन्या अंधी, लूली, गूंगी, बावली, अंगहीन, विड्प हो तो उसका महादुःख है। किसी की पुत्री को कुबुद्धि , व्यसनी, निर्धन, रोगी, पापी वर का संयोग हो जाता है तो घोर दुःख होता है। किसी की पुत्री छोटी अवस्था में विधवा हो जाये तो उसका महादुःख, पुत्री को निर्धन देखे तो महादुःख; पुत्री व्यभिचारिणी हो तो मरण से भी अधिक दुःख होता है; तथा विवाही पुत्री का मरण हो जाता है तो दुःखी होता है। __माता-पिता के वियोग का दुःख होता है। यदि पिता किसी बलवान निर्दयी का कर्ज छोड़ जाता है तो उसका दुःख होता है; क्योंकि ऋण समान दुःख नहीं है। माता-बहिन व्यभिचारिणी हो, दुष्ट हो तो महादुःख; कोई इन्हें जबरदस्ती से हरण कर ले जाय, मार दे उसका घोर दुःख होता है। दुष्टों के समागम का दुःख; दुष्ट-अधर्मी-अन्यायमार्गी के साथ शामिल आजीविका हो तो महादुःख दुष्ट अन्यायी के अधीनपना हो तो दुःख होता है। मनुष्य जन्म में धनवान होकर फिर निर्धन हो जाने का दु:ख , तथा मानभंग होने का दुःख होता है। कोई अपना मित्र होकर फिर दोष देखनेवाला, छिद्र प्रकट करनेवाला , असत्य बोलनेवाला , अपराध लगाने वाला शत्रु हो जाय तो उसका बहुत दुःख होता है। यह संसार सर्व प्रकार दु:खरुप ही है। यहाँ पर राजा होकर रंक हो जाता है, रंक से राजा हो जाता है; इत्यादि मनुष्य पर्याय में घोर दुःख ही है। देवगति के दुःख यदि कभी देव पर्याय पाता है तो वहाँ भी मानसिक दुःख होता है। यद्यपि देवों के निर्धनता नहीं, बुढ़ापा नहीं, रोग नहीं; क्षुधा-तृषा-मारण-ताड़न-वेदना नहीं; तथापि महान ऋद्धि के धारकों को देखकर अपने को नीचा मानकर मानसिक दुःख को प्राप्त होता है। कोई इष्ट देवांगना के वियोग होने के दुःख को प्राप्त होता है; यद्यपि जब कोई देवांगना मरती है तब उसके स्थान पर शरीर, रुप ऋद्धि आदि सहित वैसी की वैसी ही दूसरी उत्पन्न हो जाती है, तो भी उस जीव के वियोग का दुःख तो उत्पन्न होता ही है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy