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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३८०] प्राप्त होना है। व्यवहार में भी चार शरण है - अरहन्त, सिद्ध, साधु व केवली द्वारा प्रकाशित किया धर्म। ये ही शरण जानना क्योंकि इनकी शरण बिना आत्मा उज्ज्वलता को प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार अशरण भावना का वर्णन किया ।२।। __ संसार भावना (३) : अब संसार भावना के स्वरुप का वर्णन करते हैं। इस संसार में अनादिकाल से मिथ्यात्व से उदय से अचेत हुआ जीव जिनेन्द्र सर्वज्ञ वीतराग के कहे सत्यार्थ धर्म को प्राप्त नहीं करके चारों गतियों में भ्रमण करता है, संसार में कर्मरुप दृढ़ बंधन से बंधा, पराधीन हुआ, त्रस स्थावरों में निरन्तर घोर दुःख भोगता हुआ बारम्बार जन्म-मरण करता है। जो-जो कर्म के उदय आकर रस देते हैं उनके उदय में प्राप्त सामग्री में अपनत्व धारण करके अज्ञानी जीव अपने स्वरुप को नहीं जानते हुए नये-नये कर्मों का बंध करता है, तथा कर्मों के बंध के अधीन हुए प्राणी को ऐसी कोई दुःख की जाति बाकी नहीं रही जो पहले नहीं भोगी हो। समस्त दुःखों को अनन्त-अनन्तबार भोगते हुए अनन्तानन्त काल व्यतीत हो गया । पंच परावर्तन का स्वरुप : इस प्रकार संसार में इस जीव के अनन्त परिवर्तन व्यतीत हो गये हैं। संसार में ऐसा कोई पुद्गल बाकी नहीं रहा, जिसको इस जीव ने शरीरादिरुप तथा आहाररुप से ग्रहण नहीं किया हो। अनन्त जाति के अनन्त पुद्गलों को शरीररुप धारण किया है, आहाररुप भोजनपानरुप भी ग्रहण किया है। ____ तीन सौ तेतालीस धन राजू प्रमाण इसलोक में आकाश के क्षेत्र में ऐसा कोई एक भी प्रदेश बाकी नहीं रहा, जहाँ संसारी जीव ने अनन्तानन्त जन्म-मरण नहीं किये हों। उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का ऐसा कोई एक भी समय बाकी नहीं रहा, जिस समय में यह जीव अनन्तबार जन्मा और अनन्तबार मरा नहीं हो। नरक ,तिर्यंच ,मनुष्य,देव-इन चारों पर्यायों में यह जीव जघन्य आयु से लगाकर उत्कृष्ट आयु तक के सभी समयों की आयु के बराबर आयु धारण करके अनन्तबार जन्म धारण किया है। सिर्फ नौ अनुदिश व पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न नहीं हुआ; क्योंकि उन चौदह ( नौ तथा पाँच ) विमानों में सम्यग्दृष्टि के बिना अन्य का उत्पाद नहीं होता, सम्यग्दृष्टि का आगे संसार भ्रमण नहीं होता है। ___ कर्म की स्थिति बंध के स्थान, स्थिति बंध के कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषाय अध्यवसाय स्थान, उनको कारण असंख्यात लोक प्रमाण अनुभाग बंध अध्यवसाय स्थान, व जगत श्रेणी के संख्यातवें भाग योग स्थानों में ऐसा कोई भाव करना बाकी नहीं रहा जो इस संसारी ने नहीं किया हो। एक सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र के योग्य भाव तो नहीं किये, अन्य समस्त भाव संसार में अनंतबार किये हैं। निगोद अवस्था का दु:ख : जिनेन्द्र के वचनों के आलम्बन से रहित पुरुषों की, मिथ्याज्ञान के प्रभाव से, अनादि से ही विपरीत बुद्धि हो रही है, इसलिये सम्यग् मार्ग को ग्रहण नहीं करते हुए, संसाररुप वन में भटकते हुए निगोद में पहुंच जाते हैं। कैसा है निगोद ? जहाँ से निकलना अनन्तानन्त Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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