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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३७९ की शरण ग्रहण करो, तो अशुभ कर्म की निर्जरा होकर, आगे नवीन बंध नहीं होगा। रोग, वियोग, दारिद्र, मरण आदि से भय छोड़कर परम धैर्य ग्रहण करो। अपना परम वीतराग सन्तोषभाव, समताभाव - ये ही शरण है, अन्य नहीं। इस जीव के उत्तम क्षमादि भाव ही स्वयं के लिये शरण हैं। क्रोधादि भाव इस जीव को इसलोक तथा परलोक में घातक हैं। इस जीव को कषायों की मंदता इसलोक में हजारों विघ्नों का नाश करनेवाली परम शरण है तथा परलोक में नरक तिर्यंचगति से रक्षा करनेवाली है। मंदकषायी का देवलोक में तथा उत्तम मनुष्यों में जन्म होता है। यदि पूर्व कर्म के उदय में आर्त-रौद्र परिणाम करोगे तो उदीरणा को प्राप्त हुए कर्म को रोकने में तो कोई समर्थ है नहीं; केवल दुर्गति का कारण नवीन कर्म और बंध जायेगा। कर्म के उदय आने के बाह्य सहकारी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मिलने के पश्चात् कर्म के उदय को इन्द्र, जिनेन्द्र, मणि, मंत्र, औषधि आदि कोई रोकने को समर्थ नही होता है। रोगों का इलाज तो जगत में औषधि आदि देखा जाता है, परन्तु प्रबल कर्म के उदय को रोकने को औषधि आदि समर्थ नहीं होते हैं, विपरीत परिणम जाते हैं। इस जीव के असाता वेदनीय कर्म का यदि प्रबल उदय हो तो औषधि आदि विपरीत होकर परिणम जाते हैं। असाता का मंद उदय हो या उपशम हो तो औषधि आदि उपकार करते हैं, क्योंकि मंद उदय को रोकने को तो अल्पशक्ति का धारक भी समर्थ होता है। प्रबल बल के धारक को रोकने को अल्पशक्ति का धारक समर्थ नहीं होता है। इस पंचमकाल में अल्प ही तो बाह्य द्रव्य-क्षेत्रादि सामग्री है, अल्प ही ज्ञानादि है, अल्प ही पुरूषार्थ है, किन्तु अशुभ के उदय के आने की तो बाह्य सामग्री की सहायता प्रबल है; अतः अल्प सामग्री अल्प पुरुषार्थ से प्रबल असाता के उदय को कैसे जीते ? जैसे प्रबल नदी का प्रवाह किनारों की मिट्टी को उखाड़ता हुआ चला आता हो, उसको तैरने की विद्या में समर्थ कुशल पुरुष भी तैरकर पार नहीं हो सकता है। नदी के प्रवाह का वेग मंद बहता हो तो तैरने की कला जाननेवाला तैरकर पार हो जाता है। अतः प्रबल कर्म के उदय में अपने को अशरण भावना का चिन्तवन करना चाहिये। यहाँ पर पृथ्वी तथा समुद्र दो चीजें बड़ी हैं। पृथ्वी को पार करने को तथा समुद्र को तैरने को समर्थ भी अनेक दिखाई देते हैं, परन्तु कर्म के उदय को रोकने में समर्थ कोई नहीं दिखाई देता है। इस संसार में सम्यग्दर्शन शरण है, सम्यग्ज्ञान शरण है, सम्यग्चारित्र शरण है, सम्यक् तप संयम शरण है। इन चार आराधना के सिवा अनन्तानन्त काल में कोई शरण नहीं है। उत्तमक्षमादि दशधर्म प्रत्यक्ष इस लोक में समस्त क्लेश. दःख, मरण, अपमान. हानि आदि से रक्षा करनेवाले हैं। इस मंदकषाय जनित धर्म की आराधना का फल तो स्वाधीन सुख, आत्मरक्षा, उज्ज्वल यश, क्लेशरहितपना, उच्चता इस लोक में प्रत्यक्ष देखकर इसकी शरण ग्रहण करो। परलोक में इसका फल स्वर्गलोक Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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