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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार [३८१ काल में भी कठिन है । कभी पृथ्वीकाय में, जलकाय में, अग्निकाय में, पवनकाय में, प्रत्येक-साधारण वनस्पतिकाय में समस्त ज्ञान की व्यक्तता के अभाव से, जड़ जैसा होकर, क स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा. कर्म के उदय के आधीन होकर. आत्म शक्ति रहित जिहा. घ्राण, नेत्र, कर्णादि इन्द्रिय रहित होकर दुःखमय दीर्घकाल व्यतीत करता है। ___ दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय,चार इंद्रिय रुप विकलत्रय जीव आत्मज्ञान रहित केवल रसनादि इन्द्रियों के विषयों की अतितृष्णा के मारे उछल-उछलकर विषयों के लिये गिर-गिरकर मरते हैं। असंख्यात काल विकलत्रय में, फिर एकेन्द्रियों में, फिर-फिर बारम्बार अरहट की घड़ी के समान नई-नई देह धारण करता हुआ चारों गतियों में निरन्तर जन्म-मरण, क्षुधातृषा, रोग-वियोग का संताप भोगता हुआ अनन्तकाल से परिभ्रमण कर रहा है। इसी का नाम संसार है। जैसे गरम अधन में चावल के दाने चारों तरफ दौड़ते हुए पकते हैं, उसी प्रकार संसारी जीव कर्मों से तपाया हुआ चारों गतियों में परिभ्रमण करता है। आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को अन्य बलवान पक्षी मार डालते हैं; जल में विचरण करनेवाली मछली आदि को अन्य बड़े मगरमच्छादि मार डालते हैं; जमीन पर चलते हुये मनुष्य, पशु आदि को सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि दुष्ट तिर्यच तथा भील, म्लेच्छ, चोर ,लूटेरे, महानिर्दयी मनुष्य मार डालते हैं। इस प्रकार इस संसार में समस्त स्थानों में निरन्तर भयभीत होकर निरन्तर दुःखमय परिभ्रमण करता है। जैसे शिकारी के उपद्रव से भयभीत भागता हुआ खरगोश, अजगर के खुले फैले हुये मुंह को बिल समझकर प्रवेश कर जाता है; उसी प्रकार अज्ञानी जीव क्षुधा, तृषा, काम, क्रोधादि, तथा इन्द्रियों के विषयों की तृषा के आताप से संतापित होकर विषयरुप अजगर के मुख में प्रवेश करता है। विषय-कषायों में प्रवेश करना वही संसाररुप अजगर का मुख है। इसमें प्रवेश कर अपने ज्ञान, दर्शन,सुख,सत्तादि भाव प्राणों का नाश कर निगोद में अचेतन जैसा होकर अनन्तबार जन्म-मरण करता हुआ अनन्तानन्त काल व्यतीत करता है, वहां आत्मा अभाव तुल्य ही है। ज्ञानादि का अभाव होने पर तो समझना चाहिये कि जैसे नष्ट ही हो गया हो। निगोद में अक्षर के अनन्तवें भाग ज्ञान रहता है जो सर्वज्ञ ने देखा है। त्रस पर्याय में भी जितने दुःख के प्रकार हैं, वे सब दुःख अनन्तबार भोगे हैं। दुःख की ऐसी कोई जाति बाकी नहीं रही है जो इस जीव ने संसार में नहीं पाई हो। इस संसार में यह जीव सब अनन्तबार दुःखमय पर्याय पाता है तब कोई एकबार इंद्रियजनित सुख की पर्याय पाता है; वह भी विषयों की आताप सहित, भय शंका सहित अल्प काल के लिये ही पाता है। फिर अनन्त पर्याय दुःख को पाता है तब फिर एक पर्याय इंद्रियजनित सुख की कभी प्रप्ति हो पाती है। नरकगति के दु:ख : अब चारों गतियों के स्वरुप का परमागम के अनुसार कुछ विचार करते हैं:- नरक की सात पृथ्वी हैं, उनके उनचास पटल हैं। उन पटलों में चौरासी लाख बिल हैं। उन बिलों को ही नरक कहते है। उनकी भूमि, दीवालें, छत वज्रमयी हैं। कोई बिल संख्यात Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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