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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३७२] तो दैत्यादि दुष्ट पहले बनाये ही क्यों ? १६. यदि ईश्वर को पहले से ज्ञान नहीं था कि ये दुष्ट हो जायेंगे, तो ईश्वर के बड़ा अज्ञानीपना ठहरा जिसने अपने किये का फल पहले से ही नहीं जान पाया ? तो ईश्वर के महादुखितपना भी ठहरा ? जो नई-नई रचना करता रहता है, किन्तु यदि उसमें कहीं भूल हो जाती है तो मारता फिरता हैं, ढूंढ़ता फिरता है, दुःख का मारा स्वयं छिपता फिरता है, दुष्टों को मारने के लिये हजारों उपाय, सहाय, भेष शस्त्रादि साम्रगी का चिन्तवन करता हुआ महाक्लेश से जन्म पूरा करता है। ___ इस प्रकार ईश्वर के तो अज्ञान, राग, द्वेष, मोहादि (मूर्तिक, सक्रिय, अव्यापी, विकारी, निष्प्रयोजन, क्रीड़ा, दुष्टता, संसारी, अधर्मी, दुःखी, भयभीत, अल्पशक्तिवान अल्पज्ञ, चिंतित, अकर्ता आदि ) अनेक दोष दिखाई देते हैं ( वह ईश्वर पूर्ण, सुखी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान , मुक्त, वीतरागी नहीं सिद्ध होता है। इसलिये मिथ्यादृष्टियों के द्वारा बनाये गये असत्य शास्त्रों से उत्पन्न क्लेश को छोड़कर, वीतराग सर्वज्ञ का कहा अनादिनिधन स्वत: सिद्ध लोक का स्वरुप जानकर श्रद्धान करो। यें छह द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल अनादि निधन हैं। असत् को कोई सत् करने में समर्थ नहीं है। जो सत् वस्तु है उसका कभी नाश नहीं होता है, तथा असत् का कभी उत्पाद नहीं होता है। ये उत्पादन-विनाश तो पर्यायार्थिक नय से कहे जाते हैं। ___जितने भी चेतन-अचेतन पदार्थ हैं वे द्रव्यपने से कभी उत्पन्न ही नहीं होते हैं, नष्ट भी नहीं होते हैं। समय-समय पूर्वपर्याय का नाश तथा उत्तरपर्याय का उत्पाद हो रहा है। द्रव्य ध्रौव्य है, उत्पन्न नहीं होता, नष्ट नहीं होता। उपजना, विनशना पर्याय का होता है, पर्याय एकरुप रहती नहीं है। द्रव्यों का कभी नाश नहीं होता है। छह द्रव्यों का समुदाय ही लोक है, अन्य वस्तुरुप लोक नहीं है। बारह भावना : इस संस्थानविचय धर्मध्यान में बारह भावनायें निरन्तर चिन्तवन करने योग्य हैं। अनित्य , अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व , अशुचि, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ , धर्म - ये बारह भावनाओं के नाम कहे हैं। भगवान तीर्थंकर भी इनका स्वभाव विचारकर संसार शरीर-भोगों से विरक्त हुए हैं। इसलिये ये भावनाये वैराग्य की माता हैं, समस्त जीवों का हित करनेवाली हैं, अनेक दुःखों से व्याप्त संसारी जीवों को ये भावनायें ही भली तथा उत्तम शरणरुप हैं। दुःखरुप अग्नि से जलते हुए जीवों को शीतल कमलवन के बीच में निवास के समान है, परमार्थ मार्ग को दिखलानेवाली है, तत्त्व का निर्णय करानेवाली है, सम्यक्त्व को उत्पन्न कराने वाली है, अशुभ ध्यान को नष्ट करनेवाली है। इन बारह भावनाओं के समान इस जीव का अन्य हित नहीं है, द्वादशांग का सार है। अतः बारह भावनाओं का भाव सहित इस संस्थान विचय धर्मध्यान में चिन्तवन करो। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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