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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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अनित्य भावना (१) : अनित्यभावना का स्वरुप इस प्रकार विचारना चाहिये। देव, मनुष्य, तिर्यंच ये समस्त ही जल के बुदबुदे के समान, झाग के पुंज के समान विनाशीक हैं, देखतेदेखते ही विलयमान होते चले जाते हैं। ये समस्त ऋद्धि, संपदा, परिकर स्वप्न के समान हैं, इस प्रकार विनशते हैं जैसे स्वप्न में देखी हुई वस्तु फिर नहीं दिखाई देती है। इस जगत में धन, यौवन, जीवन, परिवार समस्त क्षण भंगुर हैं। संसारी मिथ्यादृष्टि जीव इनको ही अपना स्वरुप अपना हित जान रहे हैं। अपने स्वरुप की पहिचान होती, तो पर को अपना कैसे मानते ?
समस्त इन्द्रियजनित सुख जो ये दृष्टिगोचर हैं वे इन्द्रधनुष के रंग के समान देखते-देखते विलीन हो जाते हैं, यौवन का जोश संध्याकाल की लाली के समान क्षण-क्षण में नष्ट होता जाता है। अतः ये मेरा ग्राम, मेरा राज्य, मेरा घर, मेरा धन, मेरा कुटुम्ब- ऐसा विकल्प करना महामोह का प्रभाव है। जो-जो पदार्थ नेत्रों से दिखाई देते हैं वे सभी विला जायेंगे, इनको देखने-जानने वाली इन्द्रियाँ हैं, वे भी अवश्य ही नष्ट होयेगी। अतः शीघ्र ही आत्मा के हित में उद्यम करो।
जैसे एक नाव में अनेक देशों के अनेक जाति के मनुष्य एक साथ बैठ जाते हैं, बाद में किनारे पर आकर अनेक देशों को चले जाते हैं; वैसे ही कुलरुप नाव में अनेक गतियों से आये प्राणी एक साथ मिलकर रहने लगे हैं, बाद में आयु पूर्ण होने पर अपने-अपने कर्म के अनुसार चारों गतियों में चले जाते हैं। जिस देह के संबंध से स्त्री, पुत्र, मित्र, बंधु आदि को अपने मानकर रागी हो रहे हो, वह देह अग्नि में भस्म होगी, माटी में मिलेगी तथा कोई जीव खायेगा तो विष्टा कमि कलेवररूप होकर एक-एक परमाण जमीन आकाश में अनन्त विभागरुप होकर बिखर जायेंगे, फिर कहां मिलेंगे ?
इनका संबंध फिर नहीं प्राप्त होगा, ऐसा निश्चय जानकर स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुम्ब आदि में ममता करके धर्म को बिगाड़ना बड़ा अनर्थ है। जिस पुत्र, स्त्री, भ्राता, मित्र, स्वामी, सेवक आदि के साथ मिलकर रहकर सुख से जीना चाहते हो, वे सभी कुटुम्ब आदि के लोग शरदकाल के बादलों के समान बिखर जायेंगे। यह संबंध जो आज दिखाई देता है वह बना नहीं रहेगा, शीघ्र ही बिखर जायेगा, ऐसा नियम जानो। __ जिस राज्य के लिये, जमीन के लिये; हाट, हवेली, मकान, आजीविका के लिये; हिंसा, असत्य, छल, कपट की प्रवृत्ति करते हो; भोले-भाले लोगों को ठगते हो; बलवान होकर निर्बलों का धन छीन लेते हो; उस सभी परिग्रह का संबंध तुमसे शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा। अल्प जीवन के लिये नरक-तिर्यंचगति की अनन्तकाल पर्यंत के लिये अनन्त दुःखो की परंपरा मत ग्रहण करो। इनके स्वामीपने का अभिमान करके अनेक जीव नष्ट हो गये हैं, तथा अनेक प्रत्यक्ष नष्ट होते देखते हो। इसलिये अब तो ममता छोड़कर अन्याय का परिहार करके अपनी आत्मा का कल्याण होने के कार्य में प्रवर्तन करो। ___बन्धु, मित्र, पुत्र, कुटुम्ब आदि सहित रहना तो ऐसा है जैसे ग्रीष्म ऋतु में चार मार्गों के बीच एक वृक्ष की छाया में अनेक देशों के पथिक विश्राम करके अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं,
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