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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [३७१ और भी पूछते हैं - ११. संसार में प्राणी भले व खोटे कर्म करते हैं, तो वे ईश्वर के अभिप्राय से ईश्वर के कराये करते हैं, या ईश्वर के अभिप्राय बिना अपनी जबरदस्ती से करते हैं ? यदि कहोगे - ईश्वर की इच्छा से करते हैं ? तो वह ईश्वर होकर के अपनी प्रजा से खोटे कृत्य क्यों कराता है ? अपनी संतान को दुराचारी तो कोई नहीं बनाना चाहता है। यदि कहोगे - ईश्वर की इच्छा के बिना ही करते हैं ? तो ईश्वर के ईश्वरपना व कर्तापना कहाँ रहा? जगत के प्राणी स्वयं ही अपने कर्मादि कार्यो के कर्ता हुए। यदि यह कहोगे - कार्य तो होता है सो जैसा कर्म किया वैसा ही होता है, परन्तु ईश्वर के निमित्त से होता है। तो ऐसी स्वयंसिद्ध वस्तु (जगत) को बिना कारण ही ईश्वर का किया हुआ व्यर्थ क्यो कहते हो ? असत्य को पुष्ट करना बड़ा अनर्थ का कार्य है और पूछते हैं - १२. ईश्वर समस्त प्राणियों से वात्सल्य रखता है तथा जगत पर अनुग्रह दिखाने के लिये जगत की रचना की है। तो समस्त सृष्टि को सुखमयी उपद्रव रहित बनाना चाहिये थी; दुःखमय, वियोगमय, दारिद्रमय, रंकमय क्यों बनाई ? इस प्रकार तो ईश्वरपना नहीं रहा ? यदि कहोगे - जो ईश्वर के भक्त थे उनको सुखी किया, दुष्टों को दुःखी किया । तो पूछते हैं - १३. ईश्वर होकर आपने दुष्ट क्यों बनाये ? सभी अपने भक्त ही बनाना थे म्लेच्छादि अपने द्रोहियों को क्यों बनाया ? यदि कहोगे - ईश्वर को पहले ठीक-ठीक ज्ञान नहीं था, बाद में जो दुष्ट देखे तो उन्हें दण्ड दिया। इससे तो ईश्वर का अज्ञानीपना प्रकट हुआ ? यह सृष्टि किसी अज्ञानी की बनाई हुई ठहरी । और पूछते हैं - १४. ईश्वर ने जगत को बनाया हैं, तो जगत पहले से ही विद्यमान था उसे बनाया है या अत्यन्त असत् ( पहले कुछ भी नहीं था ) को बनाया है ? यदि विद्यमान को ही बनाया है तो जो पहले से ही सत्प विद्यमान था उसे कोई क्या बनावेगा ? यदि अत्यन्त असत् को बनाया है, तो वह तो आकाश के फूल के बनाने के समान अवस्तु ठहरा। ईश्वर को मुक्त कहते हैं ? १५. तो मुक्त तो कभी भी कार्य के करने-कराने में उदासीन रहता है, उसे सृष्टि को रचने की इच्छा कैसे होगी ? करने - कराने की चिन्ता मुक्त के होना संभव नहीं है। यदि ईश्वर मुक्त नहीं संसारी है, तो वह हम सबके समान ही है, उसका किया समस्त जगत कैसे उत्पन्न होगा ? इसलिये तुम्हारा यह सृष्टि को ईश्वरकृत कहना कुछ भी सार्थक नहीं रहा। पहले तो जगत को आपने बनाया, पश्चात् आपने ही उसका संहार किया, तो यह उसका महान अधर्म हुआ ? यदि आप कहोगे - दैत्यादि दुष्ट बहुत इकट्ठे हो जाने पर उनको मारने के लिये प्रलयकाल में संहार करता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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