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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३७०] मानते हो तो वह एक-एक वस्तु को बनाकर खेदित क्लेशित होता हुआ अनन्त पदार्थों को कैसे बनाकर पूर्ण करेगा ? इसलिये इस प्रकार से भी जगत का कर्त्तापना ईश्वर को सम्भव नहीं है। __ईश्वर को अमूर्तिक, निष्क्रिय, सर्वव्यापी, निर्विकार कहते हैं - ६. तो ऐसे ईश्वर ने जगत को कैसे और क्यों बनाया है ? अमूर्तिक से तो मूर्तिक व्यापी समस्त जगत में उत्पन्न होते नहीं हैं। जो निष्क्रिय अर्थात् ( क्रिया करने में असमर्थ) क्रिया रहित हो उससे रचने की क्रिया कैसे बन सकती है ? जो व्यापक होकर समस्त जगत में व्याप रहा हो उससे लोक की रचना कैसे बन सकती है? वह तो अनादि से ही समस्त लोक में व्याप्त हो रहा है। ईश्वर को विक्रिया रहित निर्विकार कहते है, उसका रचना करने के लिये विकारी हो जाना संभव नहीं है। ईश्वर ने सृष्टि बनाई है, सो क्या फल चाहने के लिये बनाई है ? ७. ईश्वर तो कृतार्थ है, कृतकृत्य है। उसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में कुछ करना बाकी नहीं रहा है, तब सृष्टि की रचना करके क्या फल चाहता है ? प्रयोजन बिना तो मूर्ख भी कोई कार्य नही करता है। ___ यदि यह कहोगे - ईश्वर को सृष्टि रचने में उसका कोई प्रयोजन नहीं था, बिना प्रयोजन ही बनाई है। तो यह अनर्थरुप कार्य करने का प्रसंग आया । यदि कहोगे - ईश्वर की यह क्रीड़ा है। तो वह मोह का बड़ा संतान-क्रम आया। क्रिड़ा तो अज्ञानी मोही बालक करता है, या जो पहले दुःखी हो वह क्रीड़ा करके दिन व्यतीत करता है, अपना दुःख भुलाने के लिये क्रीड़ा करता है। यदि ईश्वर ने जगत को बनाया है तो समस्त पदार्थों को उज्ज्वल , सुखकारी, मनोहर, रुपवान ही क्यों नहीं बनाया ? ८. जगत में कितने ही दरिद्री, कितने ही रोगी, कितने ही कुरुप, कितने ही कुबुद्धि, कितने ही नीच जाति के -ऐसे क्यों बनाये हैं ? विष , कांटे, मल, मूत्र, दुर्गन्ध आदि क्यों बनाये हैं ? दुष्ट, म्लेच्छ, भील, सर्प, चाण्डालादि क्यों बनाये हैं ? जगत में भी देखते हैं - जो बहुत बुद्धिमान, चतुर होता है वह अपने कार्य बहुत सुन्दर ही बनाना चाहता है, अपने किये हुऐ कार्य को कोई भी बिगाड़ना नहीं चाहता है। हम पूछते हैं - ९. ईश्वर ने बुद्धिमान, समर्थन और स्वाधीन होकर ग्लानिरुप, भयानक, दुःखदायक , विड्रप (भद्दी ) रचना क्यों की ? यदि यह कहोगे - जीव ने जैसे कर्मों का उपार्जन किया उसी प्रकार उनके शरीरादि समस्त सामग्री बना दी । तो उसके ईश्वरपना कहाँ रहा ? १०. जैसे जुलाहे को (कोली) महीन सूत दिया तो उसने महीन वस्त्र बुन दिया, मोटा सूत दिया तो मोटा वस्त्र बुन दिया, ईश्वर के ईश्वरपना नहीं रहा। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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