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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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फिर और पूछते हैं - २. यदि पहले सृष्टि की रचना नहीं थी, तो सृष्टि के बाहर ईश्वर कहाँ था ? तथा किस स्थान में बैठकर ईश्वर ने जगत को बनाया है ? ईश्वर आप जगत बिना निराधार बहत काल से विद्यमान था, तो आप कहाँ रहता था? इस जगत को बना कर कहाँ पर स्थापित किया ? इस जगत को किसी के आधार से कहोगे, तो वह किसके आधार से है ?
यदि कहोगे - उसका अन्य आधार है। उसका अन्य आधार कहोगे-तो उस अन्य आधार का कौन आधार है ? इस प्रकार भी अनवस्था दोष आ जावेगा।
यदि यह कहोगे - निराधार में अनादि निधन में तर्क नहीं चलता है। तो सृष्टि का कर्त्ता कहना भी नहीं बन सकता है, क्योंकि सृष्टि भी निराधार, अनादि निधन है। जैनी तो समस्त पदार्थों को ही अनादि निधन कहते हैं। जिनके मत में सृष्टि का कर्त्ता मानते हैं उनको ही दोष आवेगा।
और पूछते हैं - ३. जगत तो अनेक रुप है, उसे एकरुप ईश्वर करने में-बनाने में कैसे समर्थ हो गया ? ईश्वर तो शरीर रहित अमूर्तिक है, अमूर्तिक द्वारा शरीरादि मूर्तिक पदार्थ कैसे उत्पन्न किये जा सकते हैं, अमूर्तिक द्वारा मूर्तिक कैसे बनाये जा सकते हैं ? उपकरण एवं सामग्री बिना लोक को किस साधन से बनाया है ? क्योंकि उपादान कारण के बिना किसी भी वस्तु की रचना बनती नहीं दिखाई पड़ती है। जैसे मिट्टी के बिना समर्थ कुम्भकार भी घट की रचना करने में समर्थ नहीं होता हैं।
यदि यह कहोगे - ईश्वर ने पहले सामग्री बनाई, फिर बाद में जगत को बनाया है। तो फिर हम पूछते हैं - ४. उस सामग्री को किसने बनाया ? इस प्रकार भी अनवस्था दोष आ जावेगा।
यदि यह कहोगे - जगत के बनाने योग्य सामग्री तो स्वभाव से ही बिना बनाये ही सिद्ध ( मौजूद रहती) है। तो लोक को भी सिद्ध मानने का प्रसंग आ जावेगा। जैसे लोक के कर्ता को स्वतः सिद्ध मानना उसी तरह लोक को भी स्वतःसिद्ध मानने का प्रसंग आवेगा।
यदि यह कहोगे - ईश्वर समर्थ है। उसने बिना सामग्री के ही इच्छा मात्र से लोक को बना दिया है। तो ऐसा 'इच्छामात्र' युक्ति से रहित तुम्हारा कथन किसके श्रद्धान करने योग्य होगा ? इच्छामात्र से करने की और भी अनेक कल्पनाएं करो तो तुम्हें कौन रोकता है ? जहाँ ‘इच्छामात्र' कहा, वहाँ विचार (विवेक, तर्क, न्याय ) किसका, कहाँ रहा ?
हम पूछते हैं - ५. ईश्वर कृतार्थ है या अकृतार्थ है ? कृतकृत्य है या अकृतकृत्य है ? यदि कृतार्थ है-जिसे करने को कुछ भी बाकी कार्य नहीं रहा तो जगत के रचने की इच्छा उस ईश्वर के कैसे उत्पन्न हुई ?
यदि अकृतार्थ कहोगे - तो जो अकृतार्थ होगा वह समस्त जगत को रचने के लिये कुम्भकार के समान समर्थ नहीं होगा। अकृतार्थ कुम्भकार भी एक घड़े को बनाकर अपने को कृतार्थ मानता है, समस्त जगत की रचना करना तो अकृतार्थ से बनेगी नहीं। उसी प्रकार अगर ईश्वर को अकृतार्थ
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