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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार
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शरीर को आत्मा जानना वह देह धारण करने की परिपाटी का कारण है, तथा अपने स्वरुप को आत्मा जानना वह अन्य शरीर धारण करने से छूटने का कारण है। यह आत्मा स्वयं ही अपना मोक्ष करता है, तथा स्वयं ही विपरीत चलकर अपना संसार बढ़ाता है। अतः अपना गुरु भी आप स्वयं ही है तथा बैरी भी आप स्वयं ही है, अन्य तो बाह्य निमित्त मात्र हैं।
अन्तरात्मा आत्मा को शरीर से भिन्न जानता है, शरीर को आत्मा से भिन्न जानता है, आत्मा से समस्त पर द्रव्यों को भिन्न जानता है। इस शरीर को मलिन वस्त्र के समान नि:शंक त्याग देता है। शरीर से भिन्न आत्मा को जानता है, श्रवण करता है, मुख से बोलता है तो भी जब तक भेद-विज्ञान के अभ्यास से आत्मा में लीन नहीं होता है, तब तक वह शरीर की ममता से नहीं छूटता है। अपने आत्मा को शरीर से भिन्न इस प्रकार भावो जिससे पुनः शरीर का साथ स्वप्न में भी नहीं हो, स्वप्न में भी देह से भिन्न ही आत्मा का अनुभव हो।
मनुष्यों में जो व्रत का तथा अव्रत का व्यवहार है वह शुभ-अशुभ बंध का कारण है। जो मोक्ष है वह बंध के अभावरुप है। इसलिये जो व्रतादि क्रियायें हैं वे भी पूर्व अवस्था में हैं। प्रथम असंयमभाव को छोड़कर संयमभाव ग्रहण करना; जब शुद्धात्मभाव परम वीतरागरुप में अवस्थित हो जायेगा तब संयमभाव भी कहाँ रहेगा ?
ये जाति तथा मुनि-श्रावक के लिंग (भेष)- ये दोनों शरीर के आश्रय से वर्तते हैं, तथा शरीरात्मक ही संसार है, अत: ज्ञानी जीव जाति और लिंग में भी अपनापन त्याग देते हैं। जिसकी देह में आत्मा में आत्मबुद्धि है वह पुरुष जागता हुआ और पढ़ता हुआ भी संसार से
ता है। जिसका अपने आत्मा में अपनापन का निश्चय है वह शयन करता हुआ और असावधान रहता हुआ भी संसार से छूट जाता है।
ज्ञानी अपने सिद्ध समान शुद्ध स्वरुप की आराधना करके सिद्धपने को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे वाती दीपक से युक्त होकर स्वयं दीपक हो जाती है वैसे ही यह आत्मा भी अपने आत्मा की आराधना करके परमात्मा हो जाता है। जैसे वृक्ष आप ही घिसकर अग्नि हो जाता है, वैसे ही आत्मा भी परमात्मभाव से जुड़कर स्वयं सिद्ध बन जाता है।
जैसे किसी ने स्वप्न में अपना नाश देखा, तो जागने पर उसका नाश तो नहीं हुआ, उसी प्रकार जागते हुए भी जो भ्रम से अपना नाश मानता है उसका वास्तव में तो नाश नहीं होता है, किन्तु जो पर्याय उत्पन्न हुई है, वह नष्ट हुये बिना नहीं रहती है।
आत्म स्वरुप का अनुभव किये बिना, शरीर को ही आत्मारुप अनुभव करनेवाला अनेक शास्त्र पढ़ता हुआ भी संसार से नहीं छूटेगा; किन्तु अपने स्वरुप में अपना अनुभव करनेवाला शास्त्र अभ्यास रहित भी संसार से छूट जायगा।
हे ज्ञानी! यह जो सुख अवस्था में हुआ ज्ञान है, वह दुःख अवस्था आने पर छूट जायेगा इसलिये दुःख अवस्था में, रोग परिषहादि अवस्था में भी आत्मज्ञान का दृढ़ अभ्यास करो। इस प्रकार
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