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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३६४] चितवन के प्रभाव से बाह्य शरीरादि में आत्मबुद्धि रुप जो बहिरात्मबुद्धि है उसे छोड़कर अपने अंतर के आत्मरुप में आपरुप अंतरात्मा होकर परमात्मारुप होने का यत्न करो। परमात्मा का स्वरुप : परमात्मा के दो भेद हैं- सकल परमात्मा और निकल परमात्मा। जो घातिया कर्मों का नाश करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुखरुप स्वाधीन, अठारह दोषों से रहित, इन्द्र, नरेन्द्र, धरणेन्द्र द्वारा वंदनीय, अनेक अतिशयों सहित, सभी जीवों के हितकारक, दिव्यध्वनि सहित, देवाधिदेव , परम औदारिक देह में विराजमान अरहंतदेव हैं, वे सकल परमात्मा हैं। कल अर्थात् शरीर जो देह सहित आयु के अंत तक परमोपदेश देनेवाले अरहंतदेव हैं, वे सकल परमात्मा हैं। जो आठकर्म रहित होकर सिद्ध परमेष्ठी हो गये हैं, उनका कल अर्थात् शरीर नष्ट हो गया है इसलिये सिद्ध भगवान निकल परमात्मा हैं। यह परमात्मपद इस मनुष्य पर्याय में किसी रत्नत्रय की आराधना करनेवाले को ही प्राप्त होता है। इसका बीज बहिरात्मपना छोड़कर अंतरात्मपने में लीन होना है। बहिरात्मा के मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक अंतरात्मा हैं । देह सहित तेरहवें- चौदहवें गुणस्थान में जो हैं उन्हें परमात्मा जानना; देह रहित गुणस्थान रहित जो सिद्ध भगवान हैं वे भी परमात्मा हैं। गुणस्थान तो मोह और योग की अपेक्षा से होता है। भगवान सिद्धों के मोहकर्म भी नहीं है तथा मन-वचन-काय के योगों का भी अभाव हो गया है, अतः गुणस्थान संज्ञा रहित हैं। धर्मध्यान का और भी वर्णन करते हैं : यह धर्मध्यान सम्यग्दृष्टि के ही होता है, मिथ्यादृष्टि के नहीं होता है, ऐसा नियम है। चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ करके सप्तम गुणस्थान तक धर्मध्यान होता है। परमागम में धर्मध्यान चार प्रकार का कहा है- आज्ञा विचय , अपाय विचय, विपाक विचय, संस्थान विचय। आज्ञा विचय धर्मध्यान (१) आज्ञा विचय धर्मध्यान का संक्षेप में स्वरुप कहते है । भगवान सर्वज्ञ वीतराग के कहे आगम की प्रमाणता से पदार्थो का निश्चय करना वह आज्ञा धर्मध्यान है। जहाँ उपदेश दाता का अभाव हो, कर्म के उदय से अपनी बुद्धि मंद हो, पदार्थों से सूक्ष्मपना हो, हेतु दृष्टांत का अभाव हो वहाँ सर्वज्ञ द्वारा कहे आगम को प्रमाण मानकर इस प्रकार विचार करना चाहिये - यह ही तत्त्व है, इस प्रकार ही यह तत्त्व है, और नहीं, अन्य प्रकार नहीं, सर्वज्ञ वीतराग जिन अन्यथा कहनेवाले नहीं है। ऐसे गहन पदार्थों के श्रद्धान में अर्थ का निश्चय करना वह आज्ञा विचय है। सम्यग्दर्शन से परिणामों की विशुद्धता का धारक, अपने और परमत के पदार्थों के निर्णय को जाननेवाले ऐसा सम्यग्ज्ञानी सर्वज्ञ द्वारा कथित सूक्ष्म पदार्थों को जानकर, पाँच अस्तिकाय आदि पदार्थों का निश्चय करके अन्य भव्य जीवों को सिखलाता है; कथन के व्याख्यान के मार्ग में श्रुतज्ञान की सामर्थ्य से जैसे अपने सिद्धान्तों में विरोध नहीं आवे उस प्रकार, तथा अन्य एकान्तियों द्वारा कहे मिथ्या Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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