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ज्ञानी वचन से तथा काय से भिन्न करके, आत्मा का अभ्यास मन के द्वारा करता अन्य विषय-भोगों के कार्य कोई वचन से करता है, कोई कार्य काय से करता है, किन्तु सांसारिक कार्यों में मन नहीं लगाता है ।
अज्ञानी का तो विश्वास का और आनन्द का स्थान यह जगत है, ज्ञानी को इस जगत में कहाँ विश्वास, कहाँ आनन्द है ? उसे तो अपने स्वभाव में ही आनन्द तथा विश्वास है।
ज्ञानी आत्मज्ञान के सिवाय अन्य कार्य को अपने हृदय में स्थान नहीं देता है । लौकिक कार्यो के वश होकर जो कुछ करता है सो अनादररुप हुआ वचन से तथा काय से करता है, मन नहीं लगाता है। यह इन्द्रिय विषयों का जो रूप है, वह मेरे रूप से विलक्षण ( भिन्न जाति का ) है। मेरा रुप तो आनंद से परिपूर्ण ज्ञान ज्योतिमय है।
ज्ञानी को तो जिससे भ्रान्ति दूर होकर अपने आत्मरुप में अपनी स्थिति हो जाय वही जानने योग्य है, वही कहने योग्य है, वही सुनने योग्य है, वही चिन्तवन करने योग्य है।
इन इन्द्रियों के विषयों में इस आत्मा का हित किसी प्रकार से भी नहीं है, फिर भी बहिरात्मा अज्ञानी इन विषयों में ही प्रीति करता है । जो कहे हुये आत्मतत्त्व को नहीं कहे के समान अंगीकार करता है, उस अज्ञानी के प्रति कहने का उद्यम व्यर्थ है।
अज्ञानी को आत्मा का प्रकाश (ज्ञान) नहीं हैं इसलिये पर द्रव्यों में ही संतुष्ट हो रहा है, ज्ञानी बाहर की वस्तुओं में भ्रमरहित होकर अपने स्वरुप में ही संतुष्ट है।
जब तक मन-वचन-काय को अपना स्वरुप मानता है तब तक संसार परिभ्रमण ही है। देहादि से भेदविज्ञान होने पर संसार का अभाव है ।
वस्त्र जीर्ण हो या दृढ़ हो, लाल हो या श्वेत हो, शरीर जीर्ण- लालादि रुप नहीं हो जाता है; उसी प्रकार शरीर जीर्णादि होने पर आत्मा जीर्णादि रुप नहीं हो जाता है।
अज्ञानी प्रत्यक्ष इस शरीर को बिछुड़ते-मिलते परमाणुओं की समूहरूप रचना देखता है तो भी इसी को आत्मा जानता है, अनादि का ऐसा ही भ्रम है। ये दृढ़-स्थूल, स्थिरअस्थिर, लघु-दीर्घ, शीर्ण-जीर्ण, हलका - भारी, रुखा - चिकना, कड़ा-नरम, ठंडा-गर्म आदि पुद्गल के धर्म (गुण) हैं। इन पुद्गल के धर्मो से आत्मा का कोई संबंध नहीं है, आत्मा तो केवल ज्ञान स्वरुप है ।
यहाँ संसार में मनुष्यों का संसर्ग होता है तो वचनों की प्रवृति होती है, वचन प्रवृत्ति होती है तो मन चलायमान होता है, मन चलायमान होता है तो भ्रम होता है- ये क्रमशः उत्तरोत्तर कारण है, अतः ज्ञानीजन लोगों का संसर्ग ही छोड़ देते I
अज्ञानी बहिरात्मा अपना निवास नगर में, ग्राम में, पर्वत में, वनादि में जानता है; किन्तु ज्ञानी अन्तरात्मा तो अपना निवास अपने अन्तर में ही भ्रम रहित मानता है ।
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