SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३६१ पर के संबध से है, तथा पर द्रव्य से भेद का अभ्यास करने से मोक्ष है। जो इन्द्रियों को विषयों से रोककर क्षणमात्र भी अपने आत्मा में ठहरता है वह परमेष्ठी के स्वरुप का स्मरण करता है। जो सिद्धात्मा है सो मैं हूँ, जो मैं हूँ सो परमेश्वर है। इसलिये मेरे स्वरुप से अन्य मुझे उपासना करने योग्य दूसरा नहीं है, तथा मैं किसी अन्य के द्वारा उपासना करने योग्य नहीं हूँ। जो भ्रम रहित होकर देह से भिन्न आत्मा को नहीं जानता है, वह तीव्र तप करता हुआ भी कर्म के बंधन से नहीं छूटता है। जो भेदविज्ञानरुप अमृत से आनंदित है वह बहुत तप करता हुआ भी शरीर से उत्पन्न क्लेश से खेद को प्राप्त नहीं होता है। जिसका चित्त रागद्वेष आदि मल से रहित निर्मल है वही अपने स्वरुप को सम्यक्रुप से जानता है, अन्य किसी हेतु से नहीं जान सकता है। अपने चित्त को विकल्प रहित करना ही परम तत्त्व है, तथा अनेक विकल्पों से उपद्रवित करना ही अनर्थ है। अतः सम्यक् तत्त्व ही सिद्धि के लिये चित्त को विकल्प रहित करो। जो अज्ञान से उपद्रवित चित्त है वह अपने स्वरुप से छूटा हुआ है, जिसके चित्त में भेद-विज्ञान बसा हुआ है वह परमात्मतत्त्व को साक्षात् देखता है। यदि उत्तम पुरुषों का मन मोहकर्म के वश से कभी रागादि से तिरस्कृत हो जाये तो उन्हें अपने चित्त को आत्मतत्त्व के चिन्तवन में लगाकर रागादि का तिरस्कार कर देना चाहिये। अज्ञानी आत्मा जिस शरीर में रागी हो रहा है, उस शरीर से अपनी बुद्धि को बल पूर्वक वापिस लौटाकर चिदानन्दमय निज स्वरुप में युक्त कर देने से शरीर से प्रीति छूट जाती है। अपने आत्मज्ञान के भ्रम से उत्पन्न दुःख , आत्मा का ज्ञान करने से ही नष्ट होता है, आत्मज्ञान हित जीव का संसार परिभ्रमण बहुत तप से भी छेदा नहीं जा सकता है। ___बहिरात्मा तथा अन्तरात्मा में अन्तर : बहिरात्मा अपने लिये रुप, आयु, बल, धनादि संपदा चाहता है; अन्तरात्मा आयु, बल, धनादि से अपने को छुड़ाना चाहता है। __ अज्ञानी धन, शरीरादि पुद्गल में आत्मबुद्धि करके अपने को बांधता है, अन्तरात्मा अपने स्वरुप में आत्मबुद्धि करके बंधन से छूट जाता है। __ अज्ञानी तीन लिंग-स्त्री, पुरुष, नपुंसक रुप शरीर को आत्मा जानता है; सम्यग्ज्ञानी अपने को तीन लिंग के संग से रहित जानता है। ___बहुत काल तक अभ्यास करने पर तथा अच्छी तरह से निर्णय करने पर भी भेदविज्ञान अनादिकाल के विभ्रम से शीघ्र ही छूट जाता है; यह रुप जो मुझे दिखाई देता है वह अचेतन है, किन्तु जो चेतन है वह मुझे दिखाई नहीं देता है। अतः अचेतन पदार्थों में राग भाव करना व्यर्थ है। मुझे तो स्वानुभव प्रत्यक्ष आत्मा ही का आश्रय करना है। अज्ञानी बाह्य पदार्थों में ही त्याग ग्रहण करता है, ज्ञानी अंतरंग के रागादि परभावों को त्यागकर आत्मभाव को ग्रहण करता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy