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________________ ३६०] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार में नहीं आता हूँ, अपने अनुभव से साक्षात् प्रत्यक्ष हूँ, अब किनसे वचनालाप करूँ? मैं अन्य लोगों के द्वारा समझाने के योग्य हूँ, अन्य जनों को मैं संबोधन करूँ ऐसा विकल्प भी भ्रम है, क्योंकि अपने, और पर के आत्मा को जाने बिना किस को समझाऊँ और कौन समझे ? मैं तो समस्त विकल्प रहित ज्ञाता हूँ जो अपने स्वरुप को ही आपरुप जानता है, अपने से भिन्न अन्य को आत्मारुप नहीं जानता है, ऐसा निर्विकल्प विज्ञानमय केवल स्वसंवेदन गोचर हूँ। अन्तरात्मा विचार करता है - जैसे सांकल में सर्पबुद्धि हो जाय तब भयभीत होकर के भय से भागना, गिरना, इत्यादि क्रिया से भी भ्रष्ट हो जाता है ( भाग नहीं पाता है), उसी प्रकार पूर्व काल में मैने शरीरादि में आत्मबुद्धि करके शरीरादि के नाश में अपना नाश जानकर बहुत विपरीत क्रियाओं में प्रवर्तन किया है; जैसे सांकल में सर्प का भ्रम नष्ट हो जाने पर सांकल को सांकल जानता है तब भ्रमरुप क्रिया का अभाव हो जाता है, उसी प्रकार मेरा शरीर में आत्मा का भ्रम (आत्मबुद्धि) नष्ट हो जाने पर अब आचरण में भी भ्रम का अभाव हो गया है। जिसका ज्ञान किये बिना मैं सोते हये के समान था, उसका ज्ञान कर लेने पर मैं जागृत हूँ, ऐसा चैतन्यमय मैं हूँ । इस ज्ञान ज्योतिमय अपने स्वरुप को देखने से मेरा राग-द्वेष नष्ट हो गया है, अतः अब मेरा कोई बैरी नहीं है, कोई प्रिय नहीं है। बैरी -मित्र तो ज्ञानी में रागद्वेष विकार से दिखाई देते हैं। जो मेरे ज्ञायक आत्म स्वरुप को नहीं जानता है, वह मेरा बैरी या मित्र नहीं हो सकता है, तथा जिसने मेरे स्वरुप को साक्षात् देख लिया है वह भी मेरा बैरी या मित्र नहीं हो सकता है, अब मैं अपने स्वरुप का ज्ञाता हूँ, मुझे पिछला अपना सभी आचरण स्वप्नवत् इन्द्रजाल के समान दिखाई देता है। अहो! ज्ञानी पुरुषों के अलौकिक वृतान्त का कौन वर्णन कर सकता है ? जहाँ पर अज्ञानी अपने प्रवर्तन द्वारा कर्म का बंध कर लेता है, वहीं पर ज्ञानी अपने प्रवर्तन द्वारा कर्मबंधन से छूट जाता है। जगत के पदार्थ तो सभी जैसे हैं वैसे ही रहते हैं, दूसरी प्रकार के नहीं हो जाते हैं; परन्तु अज्ञानी अपने विपरीत संकल्पों द्वारा रागी-द्वेषी-मोही होकर घोर बंध को ज्ञानी पदार्थों का सत्य स्वरुप जानकर परम सौम्य वीतरागी होकर प्रवर्तता हुआ निर्जरा करता है। ____ मैं पूर्वकाल में दुःखों से व्याप्त संसार वन में चिरकाल से दुःखी ही हुआ हूँ, वह केवल अपने और पर के भेदविज्ञान के बिना ही हुआ हूँ। समस्त पदार्थो को प्रकाशित करने वाले भेदविज्ञान रुप दीपक के प्रज्वलित होते हुए भी यह मूर्खलोक संसार रुप कीचड़ में क्यों डूब रहा है ? यह अपना स्वरुप अपने भीतर ही अपने द्वारा अपने लिये प्रकट अनुभव में आ रहा है। इसे छोड़कर यह अन्य में अपने को जानने का व्यर्थ खेद करता है। अज्ञानी के जो-जो पर वस्तु के प्रति राग है वह राग समस्त आपदा का कारण है, जो आनन्द का स्थान है अज्ञानी उससे भय करता है, अज्ञानभाव का कोई ऐसा ही प्रभाव है। बंध का कारण तो पदार्थ के विषय में ज्ञान में भ्रम है। भ्रम रहित भाव मोक्ष का कारण है। जितना बंध है वह Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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